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भान-गंग्रह
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जनपर उसका गमनागमन श्वास उच्छ्वास आदि सब बंद हो जाता है । अमक जीव मरकर व्यंतर हुआ, भाई हुआ, पिता हुआ आदि वातें असत्य नहीं है क्योकि किमी जीवको जाति स्मरण भी होता है उस जाति स्मरण में पहले जन्मको भी बहुत सी बात मालूम हो जाती हैं। इसके सिबाय सब जीवों का आकार रूप आदि भिन्न भिन्न है । इससे भी जीवकी सिद्धिय माननी पड़ती । इलिये लीन नहीं है ऐसा जो लोग कहते है वह भी मिथ्यात्व है। भव्य जीवों को उचित है कि उनको अपन सम्यग्दर्शन के वल से ऐसे मिथ्यात्व का सर्वथा त्याग कर देना त्राहिये ।
इस प्रकार अज्ञान मत का निरूपण कर निराकरण किया । अब आगे सांग्य मत को कह कर उसका निराकरण करते हैं। संखो पुण मणइ इयं जीवो अस्थित्ति किरियपरिहीणो । देहम्मि णिवसमाणो ण लिप्पए पुण्णपावेहिं ।। १७७ ।। सांख्यः पुनः भणति एवं जोदोऽस्तीति क्रियापरिहीनः ।
बेहे निवसमानो न लिप्यते पुण्यपापैः ।। १७७ ।।
अर्थ- सांस्यमत बाला कहता है कि जीव तो है परंतु वह क्रिया रहित है इसलिये वह शरीर मे निवास करता हुआ भी पुण्य वा गपों से लिप्त नहीं होता।
आगं फिर वह कहता हैछिज्जइ भिज्जद पयडी पयढी परिभमस दोहसंसारे । पघडो करेइ कम्मं पयडी भजेइ सुह दुक्खं ॥ १७८ ।। छिद्यते भिचसे प्रकृतिः प्रकृति: परिभ्रमति दीर्घसंसार ।
प्रकृतिः करोति कर्म प्रकृति भुनक्ति सुखदुःखम् ।। १७८ ।।
अर्थ- प्रकृति ही छिन्न भिन्न होती रहती है और प्रकृति ही इस संसार समुद्र में परिभ्रमण करती है। प्रकृति ही पुण्य पाप रू! कर्म उपार्जन करती हे और प्रकृति ही सुख दुःख का अनुभव करती है ।
भावार्थ- सांख्य मत वाले प्रकृति और पुरुष दो पदार्थ मानते