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भाव-संग्रह
परिभ्रमण करते हुए दोधं कालतक ससार में पड़े हुए महा दुःस्त्र भोगा करता है -
जइ पाहाण नरदे लग्गो पुरिसो हु तरिणी तोये । खुड्डइ विगयावारी णिव महणावत्त । १८७ ।। यथा पाषाणतरएडे लानः पुरुषो हि तोरिणीतोये । गुइति विगताधारः निपति महाणवावर्ते ॥ १८७ ।।
अर्थ- जिस प्रकार पाषाण की नाव में बैठा हुआ पुरुष बिना किसी आशर के नदी के पानी में डूब जाते है उसी प्रकार अज्ञान धर्म में लगे हुए जीव इस संसार रूपी महा समुद्र मे पडकर अनंत कालतक परिभ्रमण करते रहते है।
गुच्छियगुरुकयसेवा विधिहावइपउरदुक्खआवत्ते । तह पणिमज्जइ पुरिसो संसार महोवही भोमे || १८८ ।। कुत्सित गुरुकृतसेवा विविधातिप्रचुर दुःखावते । तथा च निमज्जति पुरुषः संसार महोवधभीमे ।। १८८ ।।
अर्थ- जिस प्रकार कुत्सित वा नीचगुरु की सेवा करने से अनेक प्रकार के दुःखरूपी समुद्र में पड़ जाता है उसी प्रकार कुगुरु की सेवा करने से यह पुरुष भी इस संसार रुपी महा भयानक समुद्र में पड़कर अनंत काल के लिये डूब जाता है ।
वयभव कुंठ रुहि णि र णिविकट्टचिट्ठीहि । अप्पाणं णासिभो अण्णेवि य णासिओ लोओ ।। १८१ ।। प्रतभ्रष्ट कुण्ठरुद्रः निष्ठुरनिकृष्टयुष्टचेष्टः । आस्मान नाशयिस्था अन्योपि च नाशितो लोकः ।। १८९ ॥
अर्थ- जितने कुगुरु है बे सब व्रतों से प्रष्ट है अत्यंत क्रूर परिणामों को धारण करनेवाले हैं अत्यंत निष्ठूर है निकृष्ट है, और दुष्ट चेष्टाओं का करने वाले हैं। इसलिये ऐसे कुगुरु अपने आत्मा का भी नाम करते है और अन्य अनेक जीवों का भी नाश करते है ।