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भाव-संग्रह
भावार्थ- इस संसार में रूप यौवन धन लक्ष्मी आदि समस्त पदार्थों की प्राप्ति होना सुलभ है परंतु यथार्थ धर्म की प्राप्ति होना अत्यंत कठिन है। इसलिये यदि शुम कर्मा के उदय से भगवान जिनेन्द्रदेव का कहा हुआ धर्म प्राप्त हो जाय तो उसके पालन करने मे कमी प्रमाद नहीं करना चाहिये । मन वचन काय से उसका पालन करना चाहिये ।
इस प्रकार अज्ञान मिथ्यात्व का स्वरूप कहा तथा उसका निराकरण किया।
अब आगे चार्वाक मत का निराकरण करते हैं । कउलायरिओ अक्खड़ अस्थि ण जोवो हु कस्स तं पाबं । पुणे वा कस्स भवे को मच्छह णरय सगं वा ।। १७२ ।। कौलाचार्यः कथयति अस्ति न जोबो हि कस्य तत्पापम् । पुण्यं वा कस्य भवेत को गच्छति नरक स्वर्ग वा || १७२ ।।
अर्थ- कौलाचार्य कहते है कि इस संसार में जीव ही कोई नहीं है। जब जीव कोई है ही नहीं तो फिर किसको पाप लगता है, किसको पुण्य लगता है कौन नरक जाता है और कौन स्वर्ग में जाता है।
भावार्थ- जीव कोई है ही नहीं, फिर न किसी को पुण्य लगता है न पाप लगता है, न कोई नरक जाता है और न कोई स्वर्ग में जाता है।
आगे फिर भी चार्वाक कहते हैं।
जइगुडधावह जोए पिठरे जाएइ मज्जिरा सत्ती । तह पंच भूय जोए चेयणसत्ती समुभवई ।। १७३ ।। यया गुडधातकोयोगे पिठरे जायते मदिरा शक्तिः ।
तथा पंचभूतयोगे चेतनाशक्ति: समुद्भवति ।। १७३ ।। अर्थ-- जिस प्रकार किसी थाली वा पात्र में गुड और घाय के फूल मिलाकर रख देने से उसमें मद्य की शक्ति उत्पन्न हो जाती है उसो प्रकार पृथ्वी जल तेज वायु आदि पंच भूत मिल जाने से चैतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है।