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भाय-संग्रह
यदि पुत्रदत्तवानेन पितरः तप्यन्ति चतुति गता अपि ।
हि यज्ञहोमस्नान जयः तपो वेवादय अकृतार्थाः || ३३ ।। अर्ध - जो पितर लोग मरकर अपने २ कर्मके अनुसार चारों गतियों में से किसी एक गति में प्राप्त हो चुके है वे यदि पुत्र के द्वारा दिय हुए दानसे ही तृप्त हो जायं तो फिर यज्ञ, होम, स्नान जप-तप वेद आदि मब व्यर्थ हो जाते है ।
भावार्थ- स्वर्ग नरक आदि की प्राप्ति अपने आप किये हुए पुण्य पापसे होता है । जो स्वयं जप तप करता है, दान देता है इसे स्वर्ग की प्राप्ति होता है और हिमा झूठ चोरी आदि कयने से नरकादिक की प्राप्ति होती है । माता पिता भाई बन्धु आदि जीवों ने जैसा कर्म किया होगा उनको बैसे ही नरक स्वर्ग आदि की गति प्राप्ति हुई होगी। फिर भला पुत्र के द्वारा दिये हुए दान से उन पितरों का उद्धार कसे हो सकता है ? यदि फिरभी थोडी दरके लिय मान लिया जाय कि पूत्र के दानमे ही पितरों का उद्धार हो जाता है तो फिर जो लोग जप करते है, तपश्चरण करते है स्वयं दान देते है वा और भी अनेक प्रकारके पुण्य क्रमं करते हैं उनका वह जप तप दान आदि सव व्यर्थ हो जाता है। फिर नो स्वर्ग को प्राप्ति पुत्र के द्वारा दिये हुये दान पर ही निर्भर रही। परन्तु ऐसा होना सर्वथा असम्भव है।
कयपावो णरय गओ णिज्जय पुत्रोण पियरु सग्गम्मि । पिंड दाऊण फुड हाइ व तिथ्याई मणिऊण ॥ ३४ ॥ कृतपापो नरके गतो नीयते पुत्रेण पिता स्वर्गे । पिड दत्या स्फुटं स्वाति ध तीर्थानि भणित्वा ॥ ३४ ।। जइ एवं तो पियरो सग्गं पत्तो वि जाइ णरम्भि । पुत्तेण कए दोसे बंभ हच्चाइगरुएण ॥ ३५ ॥ यद्येवं हि पिता स्वर्ग प्राप्तोपि जायते मरके । पुत्रेण कृतेन दोषेण ब्रह्महत्यावि गुरुकेन ॥ ३५ ॥ अर्थ- जो माता पिता अपने अनेक पाप करने के कारण नरक