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भाव-संग्रह
आगोपालं कित्सिद्धं धान्यं मांसं पृथक् पृथक् । मांसमानय इत्युक्तेन कश्चिद्धान्यमानयेत् ॥
अर्थात् - धान्य वा अझ अलग पदार्थ है और मांस अलग पदार्थ है । इस बात को बालक वृद्ध आदि सब जानते हैं। क्योंकि मांस लाओ ऐसा कहने पर कोई भी बालक वा वृद्ध अम्न वा धान्य नहीं लाता ।
स्थावर जंगमाश्चैव द्विधा जोवाः प्रकीर्तिता । जंगमेषु भवेन्मासं फलं तु स्थावरेषु च ।।
अर्थात्- संसार मे दो प्रकार के जीव है । एक स्थावर और जंगम वा बस | इनमे से बस जोवोंमें मांस उत्पन्न होता है तथा स्थावर वृक्षादिकों पर फल लगते हैं ।
मासं तु इन्द्रियं पूर्ण सप्तधातुसमन्वितम् । यो नरो भक्षते मांसं स भ्रमेत्सागरान्तकम् ॥
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अर्थात् - मांस समस्त इन्द्रियों में पूर्ण होता है और रुविर मज्जा आदि सातों धातुओं से मिला रहता है। इसलिये जो मनुष्य मांस भक्षण करता है वह अनंत सागरों तक इस संसार में परिभ्रमण करता रहता
है |
संस्कर्ता दोपहर्ता च खादकश्चैव घातकः || उपदेष्टानुमंता ज बडेते समभागिनः ||
मांस को लाने वाला, पकाने वाला, खाने वाला जीव को मारने वाला और उसकी अनुमोदना करने वाला इन छहों जीवों को समान पाप लगता है ।
मांसाशनातिसक्के क्रूरनरे नसं निष्ठते सुदया ।
निर्दयमनसि न धर्मो धर्मविहोते च नंब सुखिता स्यात् ।।
जो क्रूर मनुष्य मांस भक्षण करने में अत्यंत आसक्त रहता है उसके हृदय में कभी कभी उत्तम दया नही हो सकती तथा जिसका हृदय अत्यंत निर्दय है उस हृदय में कभी कभी धर्म नहीं ठहर सकता और धर्म रहित मनुष्य कभी सुखी नहीं रह सकता ।