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भाव-संग्रह
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आगे अनुक्रममे इन सबमें दोष दिखलाते हैं ।
जइ सगन्धो मुक् तित्थयरो कि मुंचहि गियरज्जे । रयण णिहाणेहि समं किं णिवसइ णिज्जरे रण्णो ।। ८८ ।।
५१
यदि सग्रन्थो मोक्षः तीर्थंकरः किं मुञ्चति निजराज्यम् । रत्ननिधानैः कतिनि ॥ ८४ ॥
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अर्थ यदि परिग्रहों के रखते हुए भी मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है तो फिर तीर्थकरों को अपना राज्य छोड़ने की क्या आवश्यकता थी, अनेक प्रकार रत्न तथा निधियों के छोडने को भी क्या आवश्यकता थो और फिर सबको छोड़कर निर्जन वनमें जाने की क्या आवश्यकता थी ।
और भी देखो
रयण णिहाणं ठंड सो कि गिण्हेहि कंवली खण्डं । दुद्धिय दंडंच पडं गिह्त्यजोगं पि जं कि पि ॥। ८९ ।।
रत्ननिधानं त्यजति स कि गृहण ति कम्वलखण्डम् । दुग्धिकं वण्डं च पटं गृहस्थयोग्यमपि यत् किमपि ॥ ८९ ॥
अर्थ - यदि परिग्रह रखते हुए भी मोक्ष की प्राप्ति हो जाती तो तीर्थकर रत्न और निधियों को छोड़कर अन्य परिग्रह क्यों ग्रहण करते है ?
वस्तु स्थिति यह है कि समस्त पदार्थों का त्यागकर निर्ग्रन्थ अवस्था धारण करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । सग्रन्थ अवस्थासे मोक्ष की प्राप्ति कभी नही हो सकती ।
और भी
गेहे गेहे मिक्वं पतंगहिऊण जाइए कि सो |
कि तस्स रयणबिट्ठी घरे घरे विडिया तत्थ ।। ९० ||
गृहे गृहे भिक्षा पात्रं गृहीत्वा याचते किं सः ।
कि तस्व रत्नवृष्टिः गृहे गृहे निपतिता तत्र ।। ९० ॥