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अण्णं जं इय उत्तं संसयमिच्छत्तकलियभावेण । अहं नि थतिरकपणे
भाव-वग्रह
णहु दोसो || १४६ ।।
अन्यद्यदित्युक्तं संशयमिथ्यात्वकलितभावेन । अस्माकं स्थविरकल्पः कम्बलग्रहणेन न हि दोषः ।। ११६ ।।
अर्थ- जिन के परिणाम संशय मिथ्यात्व में भरे हुए है वे कहते है कि हम तो स्थविर करनी है, इसलिये हमको केवल ग्रहण करने में कोई दोष नहीं लगता ।
कंबली वत्थं दुद्धिय दंड कणयं च रयणभंडाई | सग्गग्ग मणणिमित्तं मोक्खस्स य होइ वित्तं ॥ ११७ ॥
कम्बलं वस्त्रं पुग्धिकं दण्डं कनकं च रत्नभाण्डादीनि । स्वर्ग गमननिमित्तं मोक्षस्य च भवति निभ्रान्तम् ॥ १२७ ॥
अर्थ- ऐसा कहा जाता है कि कंबल, वस्त्र, कुंडी, दंड सोना रत्नों के वर्तन ये सब स्वर्ग मोक्ष के कारण है इसमें किसी प्रकार की भांन्ति नहीं है ।
पर ऐसी मान्यता उचित नहीं है क्योंकि
ण उ होइ थविरकप्पो निहत्थकप्पो हवेइ फुड ऐसो । इय सो धुर्तोह कओ विश्वकप्पल भग्गे ॥ ११८ ॥
न हि भवति थविर कल्पो गृहस्थकल्पो भवति स्फुटमेषः ॥ इति भूतैः कृतः स्थविरकल्पस्थ भग्नः ॥ ११८ ॥
अर्थ- आचार्य कहते है कि कंवल दंड वस्त्र कुंडी सोना रत्नों के बर्तन रखना आदि स्थविर कल्प नहीं है किंतु यह तो गृहस्थ कल्प है । इस गृहस्थकल्प को स्थविर करूप मानने की कल्पना स्थविर कल्प से च्युत लोगों ने की है ।
भावार्थ- वस्त्र, कंवल, दंड सोना आदि रखना गृहस्थों का काम है। मुनियों के लिये तो इन सबका त्याग बतलाया है । फिर जो लोग मुनि होकर भी वस्त्र दण्ड आदि रखते है और उनको मोक्ष का साधन
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