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भाव-सग्रह
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संहननमतिनीचं कालः स दुःषमो मनश्चपलम् । तथापि हि धोराः पुरुषः महाव्रतभारधारणोत्साहाः ।। १३० ।।
अर्थ- यह काल दुःषम है इस काल में गरीर के संहनन अत्यन्त मीत्र होने है और मन अत्यन्त चंचल रहता है तथापि धीर वीर पुरुष महाव्रतों का भार धारण करने में अत्यन्त उत्साहित रहते है, यह भी एक आश्चर्य की बात है।
वरिससहस्सेण हु पुरा जं कम्म हणइ तेण कारण । ते संपइ वरिसेण हु णिज्जरयइ होणसंहणणो || १३१ ।। वर्षसहस्रेण पुरा यत्कर्म हन्यते तेन कायेन । सत्संप्रति वर्षेण हि निर्जरयति होनसंहननेन ।। १३१ ।।
अर्थ- पहले समय में जिन कर्मों को मुनिलोग अपने शरीर से हजार वर्ष मे नष्ट करत थ उन्ही कर्मों को आज कर के म्यविर कल्पी मुनि अपने हीन सहनन से ही एक वर्ष में ही क्षय कर डाल सकतं है ।
एवं पुविहो कप्पो परम जिगंदेहि अक्खियो पूर्ण । अण्णो पासंडिकओ गिहकप्पो गंथपरि कलिओ ॥१३२॥ एवं विविधः कल्पः परमजिनः कथितो नूनम् । अन्यः पाण्डिकृतो गृहस्थकल्पो ग्रंथपरिकलितः ।। १३२ ।।
अर्थ-- इस प्रकार भगवान जिनेन्द्र देव ने जिन कल्प और स्थविर कल्प एगे दो प्रकार के मुनि बतलाये है । इन दो प्रकार के मुनियों के सिवान जो वस्त्र आदि परिग्रहों मे परिपूर्ण गृहस्थ कल्पको कल्पना की हैं वह पावंडियों ने को है, एसे गृहस्थ कल्प की कल्पना भगवान जिनेंद्र देव ने नहीं बतलाई है।
बुद्धरतमस्स मग्गा परिसह विसरहिं पोखिया जे य । यो गिहकप्पो लोए स थविरकप्पो को तेहि ।। १३३ ।। बुर्धरतपसः भग्नाः परीषविषयः पीडिता ये च । यो गृहकल्पो लोके स स्थविरकल्पः कृतः तैः ।। १३३ ॥ अर्थ- जो मुनि मुनि होकर भी दुर्धर तपश्चरण धारण करने में