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भाव-संग्रह
अवस्था में तो कर्मों आम्रव ही होता है और वह भी अधिकतर अशुभ कर्मों का आस्रव होता है। इसलिये यह निश्चित सिद्धांत हैं कि गृहस्थ लिंग से मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती।
आगे फिर भी यही दात दिखलाते है । वमन्भंतरगर्थ बटुंतो इंदियत्थपरिकलिओ । जइवि हु सगवंतो तहा वि ण सिझेड तम्हि भवे ॥१०॥ बाह्याभ्यन्तरग्रन्थे वर्तमानः इन्द्रियार्थपरिकलितः ।
यद्यपि हि दर्शनवान् तथापि न सिद्धयति तस्मिन् भवे।।१०१।।
अथ- जा सद्गृहस्थ उत्तम पुरुष शुद्ध सम्यग्दर्शन सहित हो तथापि वह यदि वाह्य आभ्यंतर परिग्रहों को धारण करता है और इन्द्रियों के विषयों का सेवन करता है तो बह लस भर में उस अवस्था से कभी मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकता ।
भावार्थ- मिथ्यात्व कषाय आदि अंतरंग परिग्रहों वे, धारण करने से चित्त की शुद्धता नहीं हो सकती तथा विना मन के शुद्ध हुए धर्म्यध्यान की प्राप्ति नहीं हो सकती। फिर भला शुक्लध्यान की बात तो बहुत दूर हो जाती है । ऐसी अवस्थामें भला मोक्षकी प्राप्ति कसे हो सकती है। इसी प्रकार वस्त्र आदि बायपरिग्रह रखने से अनेक प्रकार के दोष आते है 1 वस्त्र मैले होनेपर घोने पड़ते है, वस्त्र धोने में अनेक जीवों की हिंसा होती है. न धोनेपर उन में अनेक जीव उत्पन्न हो जाते हैं । यदि वस्त्र फट जाय वा उनको कोई ले जाय तो आतध्यान होता है तथा याचना करनी पड़ती है। इस प्रकार केवल वस्त्र रखने में ही महा पाप होता है फिर मला समस्त परिग्रहों के रखने में तो अनेक महा पाप होते ही है । इसी प्रकार इन्द्रियों के विषयों को सेवन में अनेक महा पाप होते ही है। इसके सिवाय इन्द्रियों की लंपटता बढ़ती है और इस प्रकार उसके इंद्रिय संयम कभी नहीं हो सकता । इसलिये गृहस्थ अवस्था में वा परिग्रह सहित अवस्था में मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती।
आगे और भी दिखलाते है।