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भाव-संग्रह
अर्थ- जिस पुरुष का उत्तम संहनन हो, जो उत्तम गुरु हो सत्कुकदमें उत्पन्न हुआ हो, वह पुरुष जिन लिंग निर्ग्रन्थ अवस्था को धारण कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
मात्रार्थ- बिना उत्तम मंहनन के मोक्ष की प्राप्ति नहीं, स्त्रियों का उत्तम मंहनन नहीं होता इसलिये उनको मोक्ष की प्राप्ति भी नहीं होती। इसके सिवाय स्त्रियों का पर्याय निद्य पयर्धा है उत्तम पर्याय नहीं है। स्त्रियों के शरीर में अनेका सम्मू छन मनष्य उत्पन्न होते और मरते रहते है, प्रतिमास रजःस्राव होता रहता है, इसलिये भी उनको मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती । इसके मिवाय जिन लिंग निर्ग्रन्थ अवस्था धारण नहीं कर सकती इसलिये भी वे मोक्ष प्राप्त करने योग्य नहीं है । स्त्रियों को ऋद्धियाँ भी प्राप्त नहीं हो सकती तो फिर भला मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है? अर्थात कभी नहीं हो सकती । इसलिय मोक्ष की प्राप्ति सज्जाति उत्तम कूलम उत्पन्न हा चरम शरीरी महा पुरुषा को ही होती है। वह भी निर्ग्रन्थ लिन धारण करने, उत्तम ध्यान धारण करनेवाले पुरुषों की ही होती हैं।
आगे महस्थ अवस्था में मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, ऐसा दिखलाते हैं।
गिलिगे वटुं तो गिहत्थवावार गयितिधजोओ। अतरउद्दारूतो मोक्खं ण लहेहि कुलजो वि ॥ १०० ।। गृहस्थलिंगे वर्तमानः गृहस्वव्यापारगृहीतत्रियोगः ।
आर्तरौद्रारूतः मोक्षं न लभते कुलजोपि ॥ १०० ॥
अर्थ- जो मनुष्य उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ है वह भीजब तक गहस्थ लिंग में रहता है, अर्थात् गृहस्थी में रहना है । गृहस्थी के व्यापार में मन वचन काय तीनों योगों को लगता रहता है तथा अर्तध्यान और रौद्रध्यान में लगा रहता है तबतक वह उत्तम पुरुष भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता।
भावार्थ - ग्रस्थावस्था में ध्यान बा रौद्र ध्यान इन दोनों में से कोई न कोई ध्यान लगा ही रहता है और गृहस्थी के व्यापार मे आरंभी उद्योगी आदि हिंसा होती ही रहती है, परिग्रह रहता है। ऐसी अवस्था मे मला कर्मोका नाश कैसे हो सकता है। ऐसी