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भाव-संग्रह
जइ गिहवंतो सिज्झइ अगहिय णिग्गंलिंग सग्गयो। तो कि सो सिस्थयरो णिस्संगो तबइ एगागी ।। १०२ ॥ यदि गृहवान् सियति अगृहीतनिलिंगः सग्रन्थः । तहिं कि स तीर्थकरो निःसंगस्तपति एकाको ।। १०२ ॥
अर्थ- यदि गृहस्थ अवस्था में ही बिना निग्रंथ लिंग धारण किय सग्रंथ अवस्था में ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है तो फिर तीर्थकर देव समस्त परिग्रहों का त्याग कर अकेले एकांत स्थान में जाकर तपश्चरण क्यों करते है।
भावार्थ- भगवान ऋषभदेव ने भी समस्त परिग्रहों का त्याग कर निर्जन वनमें जाकर तपश्चरण किया था। इससे सिद्ध होता है कि सग्रंथ अवस्था मे कभी भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती।
आगे कवलाहार का निषेध करते है । केवलभुत्तो अरहे कहिया जा सेवडेण तहि तेण । सा पत्थि तस्स गूणं णियमणो परमजोईणं ॥ १०३ ।। कवलभुक्तोः अर्हति कथिता या श्वेतपटेन तस्मिन् तेन । सा नास्ति तस्य नूनं निहतमनः परमयोगिनः ॥ १०३ ।।
अर्थ- श्वेतपट लोग कहते है कि भगवान अरहंत देव समवशरण में विराजमान होते हुए भी कवलाहार करते हैं अर्थात् आहार को हाथसे उठाकर मुंहमें देकर भोजन करते है। परन्तु ऐसी मान्यता तर्कसंगत नहीं है । क्योंकि भगवान अरहत्तदेव परम योगी है । उनका मन भी नष्ट हो गया है, केवल द्रव्य मन है जो बिना भाव मनके कुछ काम नहीं करता 1 इसके सिवाय यह भी समझने की बात है कि अरहन्त भगवानके मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव हो गया है तथा विना मोहनीय कर्म के उदय के वेदनीय कर्म कुछ काम नहीं कर सकता । इसलिये भगवान अरहन्त देव के न क्षुधा पिपासा आदि दोष है और न वे कबला हार करते है। ___ आगे अरहन्त अवस्था किस प्रकार प्राप्त होती है यही दिखलाते