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भाव-संग्रह
अर्थ- यह केवल ज्ञान क्षुधा पिपासा आदि अठारह दोषोंये नाश होने पर ही होता है । इसलिये उन केवली भगवान के वे क्षुधा, नपा आदि अठारह दोष कभी नहीं होते ।
भावार्थ- क्षुधा, तृषा, बुढापा, “य, जन्म, मरण, रोग, शोक, रति, अरति विस्मय, स्वेद ( पसीना) खेद, मद, निद्रा. राग, द्वेष, मोह ये अठारह दोष कहलाते हैं । जब इनका सर्वथा नाश होजाता है तभी केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है। बिना इनका नाश हुए केवल ज्ञान कभी नहीं हो सकता । इससे सिद्ध होता है कि केवली भगवान के क्षुधा तुषा कोई रोग नहीं है और इसीलिये उन्हें कवलाहार की आवश्यकता ही नहीं हो सकती । यदि केवली भगवान के भी आहार की आवश्यकःता मानी जायगी तो फिर उनके अनन्त शक्ति का भी सर्वथा अभाब मानना पड़ेगा ।
यही वात आग दिखलाते हैं।
जइ सति तत्स दोसा केत्तियमिता छुहाइ जे भगिया । पा हवद सी परमप्पा अणंतविरिओ हु सो अहवा ।। १०९ ॥ यदि सन्ति तस्य दोषाः कियन्मात्राः क्षुधाविका ये भणिताः ।
न भवति स परमात्मा अनन्तवीर्यो हि सोऽथवा || १०९ ॥
अर्थ- यदि उन केवली भगवान के क्षुधा तृषा आदि दोष थोड से भी माने जायेग तो फिर वे भगवान न तो परमात्मा हो सकते हैं और न बे अनन्तवीर्य को धारण करनेवाले कहे जा सकते हैं।
भावार्थ- जो लोग क्षुधा-तृषासे पीडित रहते है वे हम आप लोगों के समान न. तो परमात्मा हो सकते है और न अनन्तवीर्य वा अनन्त शक्ति धारण कर सकते हैं। इसी प्रकार केवली भगवान भी गदि क्षुधा स पोडित होते हैं तो वे भी परमात्मा नहीं हो सकते और क्षुधा से पीडित होने के कारण अनन्त सुखी वा अनन्त वीर्यवान भी नहीं हो सकते । इसलिये केवली भगवान के क्षुधा, तृषा आदि दोष मानना सर्वथा मिथ्या है । परमात्मा होने पर भी यदि उन्हें भूख प्यास लगती है तो फिर उनमें और हममें कोई अन्तर ही नहीं रहता है । इसके सिवाय यह भी समझना चाहिये कि जो मनुष्य आहार लेते है