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भाव-संग्रह
चाहिये । अब आग सशय मिथ्यात्व का स्वरूप कहते है।
इस प्रकार तोसर वैनायक मिथ्यात्व का स्वरूप कहा । अब संशय मिथ्यात्व का स्वरूप कहते है।
संसय मिच्छादिट्ठी णियमा सो होई जत्थ सग्गंयो । णिग्गंयो वा सिज्झइ कंवलगहणेण सेवडओ ।। ८५ ।। संशायमिथ्यादृष्टिनियमात्स भवति यत्र सग्रन्थः । निग्रन्थो या सिद्धति कंवलग्रहणेन श्वेतपटः ।। ८५ ॥
अर्थ- संशय मिथ्यादृष्टी श्वेतपट होते है जिनके मन में यह संशय नियम से बना ही रहता है कि मोक्षकी प्राप्ति निग्रंथ लिंग से दिगम्बर अवस्था से ) होती है अथवा सग्रंथलिंग से (परिग्रह सहित अवस्था से) इसीलीये ये लोग बस्त्र कंवल आदि बहुत सा परिग्रह रखते
आगे यही बात दिखलाते हैं ।
दंडं दुद्धिय चेलं अण्णं सव्यं पि धम्म उवयरणं । मण्णइ मोक्खणिमित्तं गंथे लुखो समायरइ ।। ८६ ।। दण्डं दुग्धिकं चेलं अन्यत्सर्व हि धर्मोपकरणम् । मन्यते मोक्षनिमिस ग्रन्थे लुब्धः समाचरति ।। ८६ ॥ इत्थी गिहथवगे तम्हि भये चेव अत्यि णिन्याणं । कवलाहारं च जिणे गिद्दा तण्हा य संसइओ ।। ८७ ॥ स्त्रीगृहस्थवर्ग तस्मिन् भवे चैव अस्ति निर्वाणम् । कवलाहारं च जिने निद्रा सृष्णा च संशयितम् ।। ८७ ।।
अर्थ - वे जो लोग परिग्रह में बहुत ममत्व रखते है. दंड कुंडी वस्त्र आदि अपने काम आने वाले समस्त पदार्थों को मोक्ष के कारण भूत धर्मोपकरण मानते हैं. इसके सिवाय अपने गृहस्थ धर्म में रहती हुई
श्री मोक्ष प्राप्त कर लेती है अरहंत भगवान के निद्रा तंद्रा भी होती है। इस प्रकार की मान्यता बास्तविक धर्म के विरुद्ध है।