________________
भाव-संग्रह
अनुसार ही नरक स्वर्ग मे जाता है तथा कर्म बंध के अनुसार ही अनेक प्रकार के सुख दुख भोगता है । यदि ज व को क्षणिक माना नायगा तो फिर वह जिस प्रकार कर्म बंध कर सकेगा और किस प्रकार उसका फल भोग सकेगा । विना कर्मबंध और उसका फल भोग नया शरोग भी वह धारण नहीं कर सकता । सो अवम्बामे वह कोई पदार्थ ही ठहर सकता है।
आगे इस जीव को क्षणिक मानने मे और भी दोब बतलाते है। तक्षयरण बयधरणं लीवरगरणं च सोसमडलयं । सत्तहडियासु भिक्खा खणियत्ते णेव सभवई ।। ६५ ।। तपश्चरणं व्रतधारण चीवरग्रहणं च शिरोण्डनम् ।
सप्तहटिकासु भिक्षा क्षणिकत्वे नंव सम्भवति ।। ६५ ।।
अर्थ- यदि जीव को क्षणिक माना जायगा तो फिर तपश्चरण करना कभी संभव नहीं हो सकता है, न अत धारण करना संभव हो सकता है, न वस्त्र धारण करना सभव हो सकता है, न मस्तक मंडाना संभव हो सकता है और न सात घरों में भिक्षा मांगना संभव हो सकता है।
भावार्थ- जीव को क्षणिक मानने से संसार में कोई भी काम संभव नहीं हो सकते । जब यह जीव दूसरे ही क्षण में नष्ट हो जाता है, तो वह कोई भी कार्य नहीं कर सकता ।
आग ज्ञानको क्षणिक मानने में दोष दिखलाते हैं।
गाणं जइ खणभंसी कह सो वाल तववसिय मुणइ । तह बहिरगा संतो कह आवा पुदि णियगेहं ।। ६६ ।। ज्ञान यदि क्षणध्वंसि कथं तत् बालत्वलसितं जानाति ।
तथा बहिर्गतः सन् कथमागच्छति पुनरपि निजगहम् ।। ६६ ।। ___ अर्थ- यदि ज्ञानको क्षणिक माना जाय, ज्ञान भी दूसरे क्षण में नष्ट हो जाता है ऐसा माना जाय तो वह अपने वालकपने में किये हुए कामों को कैसे जान सकेगा, और यदि उसका ज्ञान दूसरे ही क्षण में नष्ट हो जाता है तो फिर घर से निकल कर बाहर गया हुआ जीव