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भाव-संग्रह।
जइ देवयं देइ सुर्य तो किं रुदेण से विया गउरी । दिवं वरिस सहस्सं पुत्तत्थं तारय एण ॥ ७९ ॥ यदि देको ददाति सुतं हि कि रुवेग सेविता गौरी । दिव्यं वर्षसहस्त्रं पुत्रार्थ तारकमयेन ।। ७९ ।।
अर्थ- यदि देव लोग किसी को पत्र दे सकते होते तो फिर महा - देवजो तारक के भयो पुत्र उत्पन्न करने के लिये दिव्य सहस्त्र वर्ष तक पार्बती सम्पर्क क्यों करते रहते।
भावार्थ- पुत्र उत्पन्न करने लिये ही महादेव ने पार्वती के साथ समागम किया था और देवताओं के हजार वर्ष तक किसी एकांत वनमें जाकर समागम करते रहते ।
तम्हा सयमेव सुओ हवेइ मिठणण रइपउत्ताणं । अण्णाण मूढलोओ वाहिज्जइ धृत्तपणुरहिं ।। ८० ।। तस्म स्वयमेव सुतो भयेत् मिथुनानां रतिप्रवृत्तानाम् ।
अजानो मूढलोको वाध्यते घूर्तमनुष्यैः ॥ ८ ॥ अर्थ- इससे सिद्ध होता है रति कर्म में प्रवृत्त होनेवाले स्त्री पुरुषों के अपने आप पुत्र उत्पन्न हो जाता है । तथापि धूर्त लोग अज्ञानी मल लोकों को चंडी मुंडी आदि देवताओं का विनय करने के लिये वाधित करते रहते है।
संते आउसि जोवइ मरणं गलयम्मि ण त्य संदेहो । णव रक्खइ कीवि तहि संतं सोसेइ ण कोई ॥ ८१ ।। सति आयुषि जीवति मरणं गलिते नास्ति सन्देहः ॥
न च रक्षति कोपि तस्मात् सत् शोषयति नहि कश्चित् ॥
अर्थ-- जब तक आय कर्म बना रहता है तबतक यह जीव जीवित रखता है तथा आयु कर्म पूर्ण हो जाता है, खिर जाता वा नष्ट हो जाता है तब यह जीव मर जाता है । इसमे किसी प्रकार का संदेह नहीं है 1 जिस समय आयु कर्म पूर्ण हो जाता है उस समय कोई भी देव उस जीव की रक्षा नहीं कर सकता । इसी प्रकार जव लक आयु कर्म रहता है तबतक उस आयु कर्म को कोई भी देह नष्ट नहीं कर सकता।