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भाव-संग्रह
आगे मांस से होने वाले श्राद्ध के दोष बतलाते है ।
मांसासिणो ण पत्तं मंसं ण ह होइ उत्तम दाणं । कह सो तिप्पड़ पियरो परमुहगसियाई भुजतो ॥ ३१ ॥ मांसाशिनो न पात्रं मांस न हि भवति उत्तम दानन् । कथं स तृप्यति पिता परमुखग्रसितानि भुज्जानः ।। ३१ ॥
अ.. हली का तो यह है कि नांत खाने वाले पुरुष कभी भी दान देने के पात्र नहीं माने जा सकते । दूसरी बात यह है कि मांस का दान देना कभी भी दान नहीं कहला सकता । फिर मला उसको उत्तम दान तो कह ही कसे सकते है ? तीसरी बात यह है कि दूसरे के मखमें ग्रास देकर भोजन कराने से पितरों की तृप्ति कैसे हो सकती है ? अर्थात् कभी नहीं हो सकती । आगे भी इमी वात को दिखलाते है
अण्णम्मि भुजमाणे अग्णो जइ धाइएत्थ पच्चक्ष । तो सग्गम्मि वसंता पिवरा तित्ति खु पाति ।। ३२ ।। अन्यस्मिन भुंजमाने यदि तृप्यत्यत्र प्रत्यक्षम् । ततः स्वर्ग वसन्तः पितरस्तृप्ति खलु प्राप्नुवन्ति ।। ३२ ।।
अर्थ- इस लोक में यदि किी एक को भोजन कराने से दुसर्ग मनष्य तृप्त हो जाता हो, तब ही स्वर्ग में रहने वाले पितर लोग भी तुप्त हो सकते है।
भावार्थ- देवदत्त के भोजन करने से यक्ष दत्त का पेट कभी नहीं भरता । फिर भला किसी के खालेनेसे स्वर्गमें रहने वाले पित्तर लोग कैन तृप्त हो सकते है. कभी नहीं हो सकते । इसलिये श्राद्धमें पितरों को तप्त करने के लिये किसी को खिलाना बिडम्बना मात्र है. इसके मित्राय और कुछ नहीं ।
आगे और भी इस के दोष दिखलाते है
अप सविण्णदाणे पियरा तिप्पंति चउगइ गया वि। सो जष्णहोमण्हाणं जब तव बेयाई अफियत्था ॥ ३३ ॥