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भाव-संग्रह
नन्दुल मत्स्य इन पांचों पापोंमें से कोई पाप नहीं करता परन्तु जीवों के हिसा करने के भाव करता रहता है। उन भावोंके ही कारण वह मातो. नरक जाता है । यही समझकर अपने भाब वा परिणाम सदा संभालते रहना चाहिए। पात्रों पापों के करने के भाव कभी नहीं करने चाहिए। पाप कर्म ना 'पुण्यकर्मों का होता है । इसलिए संसारी जोवों को नरकादिके दुःखों मे बचने के लिए पाप रूप अशुभ भावोंका त्याग करना ही आत्मा का कल्याण करनेवाला है।
सेवो सुद्धो भावो तस्सुवलं भोप होइ गुणठाणे । पणदहपमादरहिए सयलवि चारित्तजुत्तस्स || ६ || सेव्यः शुद्धो भावः तस्योपलंभश्च भवति, गुणस्थाने । पंचदशप्रमावरहिते सकलस्यापि चारित्रयुक्तस्य || ६ ||
अर्थ- इन तीनों प्रकारके भावों में शुद्ध भाव ही सेव्य है, कारण करने योग्य है । तथा उस शुद्ध माद की प्राप्ति सकाल चारित्र को धारण करने वाले महामनियों के पन्द्रह 'प्रमादों से रहित हो सातवें अप्रमत्त गुगस्थान में होती है।
भावार्थ- अशुभ भावतो त्याग करने योग्य है ही परन्तु शुभ भाव' भी त्याग करने योग्य है। क्योंकि जिस प्रकार अशुभ भावों से नरकादि दुर्गतियों का बन्ध्र होता है । उसी प्रकार शुभभावों से देवादि शुभ गतियों का बन्ध होता है । इस प्रकार शुभ अशुभ दोनों ही कर्म वन्ध करनेवाले हैं। केवल शुद्धभाव ही वार्मबन्धन मे लाकर मोक्षकी प्राप्ति कराने वाला है। इसलिए शुद्धभाव ही उपादेय और आत्माका कल्याण करने वाला है। शेष शुभ और अशुभ भाव दोनों ही त्याज्य है। वह शुद्ध भाव श्रेणी आरोहण करने वाले महामुनियों के ही होता है । शुद्ध भावों को धारण करने वाले निर्ग्रन्य प्रहामुनि ही मोक्ष प्राप्त करते हैं। इसलिये कहना चाहिये कि मोशका कारण निर्घन्धलिंग ही है । अन्य किसी अवस्थासे मोक्षकी प्राति नहीं हो सकती।
सेसर जे बे भावा सुहासुहा पुष्णपाय संजयणया । ते पचभाव मिस्सा होति गुणट्ठाणमासेज्ज ॥ ७ ॥