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भाव-संग्रह
शेष यौ द्वौ भावी शुभाशुभ पुण्यपापसंजनको । तौ पंचभावमिश्रौ भवतो गुणस्थानमाश्रित्य || ७
अर्थ- शुद्धभावों को छोडकर शेष जो शुभ अशुभ भाव है वे दोनों ही पुण्य पापों को उत्पन्न करनेवाले है । तथा वे दोनों ही शुभ अशुभ भात्र औदयिक आदि पांचों भावों से मिलकर गुणस्थानों के आश्रयसे रहते है || ७ ||
अउवइउ परिणामउ लय उवसमिउ तहा उवसमो खइओ । एए पंच पहाणा भाषा जीवाण होंति जियलोए ।। ८ ।। औवयिकः पारिणामिकः क्षायोपशमिकस्तथौ पशमिकः क्षायिकः एते पंच प्रधाना भावा जीवानां भवन्ति जीवलोक ।। ८ ।
अर्थ- औदयिक, पारिणामिक क्षायोपशमिक, औपशमिक और कि ये पांच भाव समस्त जीवों के प्रधान वा मुख्य भाव कहलाते है । भावार्थ - ये पांच भाव मुख्य है। इन्हीं पांचो भावों में जब अशुभ शुभ शुद्ध भाव मिल जाते है तब गुणस्थानों की रचना वन जाती है ॥ ८ ॥
तेचिय पज्जाय गया चउदहगुणठाण णामगा भणिया । लहिऊण उदय उवसम खयउयमस खउ हु कम्मस || ९ || ते चैव पर्यागताश्चतुर्दशगुणस्थाननामका भणिताः । लब्ध्वा उदयमुपशमं क्षयोपशमं क्षयं हि कर्मणः ॥ ९ ॥
अर्थ- वे शुभ अशुभ और शुद्धभाव ही कर्मों के उदय होने पर उपशम होने पर, क्षयोपशम होने पर, वा क्षय होनेपर अनेक प्रकारकी को प्राप्त होजाते है और उन भावों की वे पर्यायें ही चौदह गुणस्थानों के नामसे कही जाती है ।
भावार्थ- कर्मों के उदय होने से औदयिक भाव होते है, कर्मों के उपशम होने से औपशमिकभाव होते हैं' कर्मके क्षयोपशम होनेसे क्षायोपशमिकभाव होते है, और कर्मोके क्षय होनेसे क्षायिक भाव होते है ।