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भाव-संग्रह
मणि देहो विं देही पुण णिम्मलो समा रुवी । को इह जलेण सुजाद तम्हा व्हाण नहि सुद्धी ॥ २० ॥
मलिनं देहं नित्यं देहो पुनः निर्मलः सदाऽरूपी । क इह जलेन शुद्धयति तस्मात् स्वानेन न हि शुद्धिः ।। २० ।।
अर्थ - यह शरीर मल मूत्र से भरा हुआ है, रजोवीर्य से उत्पन्न हुआ है और रुधिर मांस आदि घृणित वस्तुमय है । इसलिये वह सदा मलिन ही रहता है। तथा इस शरीर में रहने वाला आत्मा सदा निर्मल रहता है और वह सदा अरूपी ही रहता है । ऐसी अवस्था में विचार करना चाहिये कि इस तीर्थ जल से किसकी शुद्धि होती है । आत्मा अरूपी है, इसलिये उसकी शुद्धि तो हो नहीं सकती तथा रुधिर मांस मय यह सरीर सदा अशुद्ध हो रहता है इसलिये वह भी शुद्धि नहीं हो सकता । इस प्रकार जल से आत्मा की शुद्धि कभी नहीं हो सकती ।
x गीता में लिखा है ।
अत्यंत मलिनो देहो देही चात्यंतनिर्मलः । उभयोरंतर दृष्ट्वा कस्य शौचं विधीयते ||
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अर्थ- शरीर अत्यंत मलिन है और आत्मा अत्यंत निर्मल है । आत्मा और शरीर इन दोनों में महान अंतर है। फिर भला तीर्थ स्नान से किसकी शुद्धि हो सकती है अर्थात् किसी की नहीं ।
और भी लिखा है
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चित्तमन्तर्गतं दुष्टं तीर्थस्नानंन शुद्धयति । शतशोपि जलधात मद्यभांडमिवाशुचि ॥
अर्थ- यह चित्त अंतरंग में अत्यंत दृष्ट है इसलिये वह तीर्थ स्तान से कभी शुद्ध नहीं हो सकता जिस प्रकार मद्य से भरा हुआ घडा सदा अशुद्ध ही रहता है यदि उसे सौ सौ बार जलसे धोया जायतो भी यह कभी शुद्ध नहीं हो सकता । इसी प्रकार यह मलिन हृदय तीर्थ स्नान से कभी शुद्ध नहीं हो सका ।