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भाव-संग्रह
उसी प्रकार यह रत्नत्रय मे मुशोभित होने वाला आत्मा तपश्चरण मे तथा इन दृष्ट इंद्रियों का परम निग्रह करने में ही शुद्ध होता है ।
यह अंतरात्मा जाल से कभी शुद्ध नहीं हो सकता। चित्तं समाधिमिः शुद्धं बदनं सत्यभाषणः । अम्हचर्यादिभिः काया: शुद्धो गंगा बिनापि सः ॥
ममाधि वा ध्यान धारणा करने से चित्त शुद्ध होता है, सत्य भाषण से मुख शुद्ध होता है और ब्रम्हचर्य आदि से शरीर शुद्ध होता है । इस प्रकार वे सव बिना गंगा स्नान के ही शुद्ध हो जाता है ।
कामरागमदोन्मत्ताः स्त्रीणां ये वावर्तिनः । न ते जलेन शुद्धयन्ति स्नात्वा तीर्थशतेरपि ।।
अर्थ- जो पुरुष कामके रागसे मन्मित्त है और जो स्त्रियों के वशीभूत है से पुरुष सैकडों तीर्थों में स्नान करने पर भी उस जल मे पभो शुद्ध नहीं हो सकते ।
गंगातोयेन सर्वेण मद्भारैः पर्वतोपमः । आम्लरप्याचरन् शौचं भावदुष्टो न शुद्धयति ।।
भावार्थ- इस आत्मा की शुद्धि रत्नत्रय से होती है इन्द्रियों का निग्रह करने से होती है और तपश्चरणा से होती है । तीर्थस्नानसे आत्मा की शुद्धि कभी नहीं हो सकती ।
___ अर्थ-- जिन जीवों के भाव दुष्ट है वे पुरुष यदि समस्त गङगाके जलमे शुद्धि करे तथा अनेक पर्वतोंके समान मिट्टी के द्वेरम शुद्धि करें, उस मिट्टी को रगड 'रगडकर गङ्गाजलसे शुद्धि करें तथापि वे दुष्ट पार णामो को धारण करनेवाले पुरुष कभी शुद्ध नही हो सकते ।
मनो विशुद्ध पुरुषस्य तीर्थ वाचा यमरचेन्द्रियनिग्रहस्तपः । एतानि तीर्थानी शरीरजानि, मोक्षस्य मार्ग परि दर्शयन्ति ।।
अर्थ- पुरुषके लिये मनका विशुद्ध होना तीर्थ है वचनों का संयम धारण करना वा मौन धारण करना तीर्थ है, इन्द्रियों का निग्रह करना