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भाव-संग्रह
तदपि हि पंचप्रकार विपरीतं एकान्तविनयसंयुक्तम् । संशयाज्ञानगत विपरीतो भवति पुनः ब्राह्मः ।। १६ ।।
अर्थ- वह मिथ्यात्व पांच प्रकार है-बिपरीत मिथ्यात्व, एकान्त मिथ्यात्व, विनय मिथ्यात्न, मनय मिथ्यात्वं, अशागारा वा अज्ञान मिथ्यात्व । इन पांचो प्रयार के मिथ्यात्वा में में ब्राह्म मत विपरीत मिथ्याल है।
माणइ जलेण सुद्धि तित्ति मंसेण पिसरवग्गस्स । पसुकयवहेण साग धम्मं गोजोणिफासेण ॥ १७ ॥ मन्यते जलेन शुद्धि तृप्ति मांसेन पितृवर्गस्य । पशकृतवधेन स्वर्ग धर्म भोयोनिस्पर्शनेन ।। १७ ।।
अर्थ- जो लोग जल स्नान से आत्माकी शद्धि मानते हैं, मांस भअण से पितृवर्ग की तृप्ति मानते है, पशुओं का वध करने वा पशुओं का होम करने में स्वर्ग की प्राप्ति मानते हैं और गाय की योनि का म्पर्श करने मे धर्म की प्राप्ति मानते हैं. इन सब में धर्म को विपरीतता किम प्रकार है वह सब आगे दिखलावेंगे ।। १७ ॥ आगे जल से आत्मा की शुद्धि मानने वालों के लिये कहते हैं
जइ जलण्हाणपउत्ता जीवा मुच्चेइ णिययपावेण । तो तत्थ बसिय जलयरा सम्ये पार्वति विवलोयं ॥ १८ ।। यदि जलस्थानप्रवृत्ता जीवा मुच्यन्ते निजपापेन ।
तहि तत्र वसन्तो जलचराः सर्वे प्राप्नुवन्ति छिलोकम् । १८ । अर्थ- यदि जल स्नान करने से ही वे जीव अपने पापोंसे छुट जाते हो तो जल में ही निवास करने वाले समस्त जलचर जीवों को स्वर्ग की प्राप्ति अवश्य हो जानी चाहिये । भावार्थ- स्वर्ग की प्राप्ति पापों के नाश हो जाने से होती है । तीर्थ स्नान करने से पापों का नाश नहीं होता, पापों का नाश तो जप तप ध्यान से होता है । जिस तीर्थ स्नान से लोग स्वर्गप्राप्ति मानते हैं उसी तीर्थ में अरबों खरबों मत्स्य