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कारण स्वरूप अरिहन्तादि ध्यान करने योग्य है । अर्थात ध्येय है । संत चित्त स्थिर होने पर साक्षात् मुक्ति का कारण जो निज शुद्धात्म
है वही ध्यावने योग्य है । पर द्रव्य होने से अरिहन्तादि ध्यावने ग्य नहीं है य एकान्त से ठीक नहीं है । अतः सविकल्प अवस्था में अरिहन्तादि उपादेय हो है । इस प्रकार साध्य साधन जानकर ध्यावने योग्य वस्तु में विवाद नहीं करना पंचपरमेष्ठी का ध्यान साधक है, और सात्म ध्यान साध्य है, यह निःसंदेह जानना । वैयावृत्यादि स्वकीयावस्था औग्यो धर्मकार्य नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्तीति 1
( टीका प्रवचनसार २५० )
अर्थ:- वैयावृत्य आदि अपनी अवस्था के योग्य धर्म कार्य की पेक्षा से नहीं चाहता है उसके सब से सम्यग्दर्शन ही नहीं है। मुनि व कपना तो दूर हो रहा ।
यद्यषि व्यवहार नयेन गृहस्थावस्थाणं विषय कषाय दुर्व्यानि वंचमार्थं धर्मवर्धनार्थच पूजाभिषेक दानादि व्यवहारोऽस्ति तथापि वीतराग निविकल्प समाधि रतानोतत्काले बहिरंग व्यापाराभावात् स्वमेव नास्तीति ।
अर्थ :- यद्यपि व्यवहार नय कर गृहस्थ अवस्था में विषय कषाय रुप खोटे ध्यान के हटाने के लिये और धर्म बढाने के लिये पूजा अभिषेक
ज्ञानं
ज्ञान समान नहि कोटि रश्मिः
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क्षेत्रा कालावधि प्रकाशयति ।
ज्ञानं तु पुनः चैतन्य रश्मिः
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ज्ञानी समान नहि चक्रवर्ती
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सर्व क्षेत्र काल प्रकाशयन्ति ।। २४ ।।
ज्ञानी
ज्ञानी जयन्ति समस्त विश्वम्
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क्षेत्र कालावधि प्रभूत्ये स्थिति ।
अनन्त सुख ईशत्वे स्थिति ।। २५ ।।