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११३ का भी है। जो विवेब जीव भावपूर्वक अरहन्त को नमस्कार करता है बह त्तिली न ममस्त दुःखों से मुकर हो जाता है ।
( ज. घ. पु. १ पृ ७-८) किं फलमेदं धम्मज्झाणि? अभाववएसु विउलामर सुहफलं गुणलिए कामणिज्जरा फलं च । स्त्रवारम् पुण असंखं ज्ज-गुण से डीए काम प्रदेश णिज्ज रण फलं मुहका माण मुक्कस्सा शुभागविहाण फलं च । अत - श्व धम्मदिनपेत घार्य ध्यानमिति- मिद्धम् । एत्य गाहाओ
होति सुहासव-संवर-णिज्जरामर सुहाई विउलाई । जमाण परस्स फालई सुहाणुबंधीणि धम्मस्स ।। ५६ ।। जह वा घण संधान रवणेण रणाह्या विलितति । माणप्प वणोबया तह क्रम्म घणा विलिज्जति ।। ५७ ।। अर्थः- शंका - इस वर्भध्यान का क्या फल है ? ।
समाधीन:- अापक जीवों को देव पर्याय सम्वन्धी विपुल मुग्व मिलना उसका फल है और गुण अंगी में कर्मो की निर्जरा होना भी उसका फल है; तथा क्षपक जीवों के तो असंख्यात गुण श्रेषी कर से कर्म प्रदेशों की निर्जरा होना और शुभ कर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग का होना उसका फल है । अतएव जो धग से अनुप्रेत वह धमध्यान है।
यदि सूर्यः कवापि पश्चिमे उदिश्यति
अग्नि शीतलता याति चन्द्र तापयति । समुद्र यदि कदापि स्वमर्यादा त्यागे
तथापि सज्जनः स्वस्वभाव न त्यागे । २२ । पर स्त्री वशंने अन्धः गमनेच नपुंसकः
विकथा निन्दा श्रवणे बधिरमेव भावः । असत्य भाषणे मूकः कुकार्येच पंगुः
मुग्ध कुविचारे अहो कृति सज्जनस्य ।। २३ ।।