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शुद्धात्मानुभूति लक्षणं त्रिगुप्ति गुप्त वीतर ग निर्विकल्प परमसमाधि लब्ध्वा तिष्ठन्ति तदा स मतमेव । यदि पुनस्तथा विद्यामवस्थामलभ माना अपिसंतो गृहस्यावस्थायां दानपूजादिकं त्यजति तपोवनावस्याया पडावश्याकदिक च त्यक्त्वोज्य भृष्टाः संत: तिष्ठन्ति तदा दूषणःमेवति तात्य ॥
अर्थ- प्रभाकर भट्ट कहने है - यदि जो कोई पुण्य पाप इन दोनों को ममान मानकर रहते है तो उनके मत मे आप दूषण क्यों देते हैं ? योगीन्द्र देव कहते है - जब शद्वात्मानुभूति स्वरुप जीन मुति म गुप्त बोतराग निर्विकल्प समाधि को पाकर ध्यान में मग्न हुये पुण्य पापको समान जानते हैं तब तो सम्मत ही है । परन्तु जो मूढ परमसमाधि को न पाकर भी गृहस्थ अवस्था में द्वान पुन दिक शुम क्रियाओं को छोड़ देते है । और मुनि पद में छह आवश्यक क्रियाओं को छोड देने है वे दोनों तरफ भ्रष्ट हो जाते है इसलि। उनके मन में अब जो पु-य और पाप को समान मानते है हुये रहते हैं सो ही दूषण है।
( प. प्रकाश - पा. १८२) अथ हे जीवजिनेश्वर पदे परम भक्ति कुविति शिक्षा वताती" अरि जिघ जिश – पर मति करि सुहि सज्जणु अवेहरि । ति बप्पेण वि कज्जु धि जो पाडइ संसारी ।। १३४ ।।
मिरर्थक जीवन
वित्तं हि नष्ट किचित र स्वास्थ्यं हि नष्ट किचिोड नष्टम् । वत्त हि नष्टं सर्व विनष्ट तसच वृत्तं परिरक्षणीयम् ।। धर्मार्थकाममोक्षाणं यस्यकोऽपि न विद्यते । अजागलस्तनस्यैव तस्य जन्म निरर्थकम ।। येषां न विदा न तपो न आनं ज्ञानं न शोलं न गुणो न धर्मः । ते मत्र्यलोके भूविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।। आहारनिद्राभयमथुनानि सामान्यमेतत्पशुमिर्जराणाम् । धर्मः विशेषः खलुमानवानां धर्मेन हीना पावो मानवाः ।।