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पञ्च कल्याण पूजा जनकं त्रैलोक्य विजयकरं यत्तीर्थकरनाम पुण्य कर्म तत्फलभूता अर्हन्तो भवन्ति । तेषां सा दिव्यध्वनिरूप वचच व्यापारादि क्रिया सा निःक्रियशुद्धात्मतत्व विपरीत कर्मोदय जनितत्वासर्वाप्योदयिकी भवति हि स्फुटं । निर्मोह शुद्धात्मतत्व प्रच्छादकममकाराहङ्कारोत्पादन समर्थ मोहादि विरहितत्वाद्यतः । तस्मात् सा यद्यप्योदयकी तथापि निर्विकार शुद्धात्मतत्वस्य विक्रियामकुती सती क्षायिकी मता ।
( प्र. सार. ना. व. | पृष्ठ
तीर्थंकर अरहन्त भगवान पुण्यफल स्वरूप है अर्थात् पञ्चमहाकल्याण कि पूजा को उत्पन्न करनेवाला तथा तीन लोक को जीतनेवाला जो तीर्थंकर नामकर्म पुण्यकर्म उसके फल स्वरूप अरहन्त तीर्थंकर होते है । तथा उन अरहन्तों की दिव्यध्वनि रूप वचन का व्यापार तथा शरीरादि के व्यापार रूपक्रिया स्पष्ट रूप से औदयिक है । अर्थात निष्क्रिय निज शुद्धात्म तत्व से उस की क्रिया विपरीत है क्योंकि शुद्धात्मतत्व में कर्मोदय जनित किसी भी प्रकार कि क्रिया नहीं है । वह क्रिया मोहादि को से अर्थात मोह रहित निज आत्म तत्त्व रोकने वाले तथा ममकार अहंकार को पैदा करने को समर्थ मोहादि से रहित है । इसलिये क्षायिक है। वहाँ पर पुण्योंदय रूप तीर्थंकर नाम कर्म के अत्युताष्ठ उदय से समवशरण में स्थित होकर के उपदेश करना और विहार करने रूप लिया होते हुये भी मोहनीय कर्म के अभाव से कर्म बन्ध नहीं होता है । तथा साता वेदनीय कर्म का तीव्र उदय होते हुये भी वहाँ केवलज्ञानादि गुणों का घात नहीं होता है । इसमें सिद्ध होता है कि भले पुण्य प्रकृति के सद्भाव से साक्षात सब कर्म विनिर्मुक्त रूप द्रव्य मोक्ष नहीं है । परन्तु स्वात्मोपलब्धि रूप भावजीवन मुक्त होने में पुण्य प्रकृति बाधक नहीं है। घाति कर्म रूप पाप प्रकृतियों का सद्भाव रहते हुये भाव मुक्त - ( जीवन मुफ्त ) अवस्था प्राप्त हो नहीं सकती है ।