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अप्रमत्त गुणस्थान मे धर्म ध्यान होता है यहां पर सालम्ब और निरालंब धर्मध्यान कि मुख्यता है उसने पूर्ववर्ती गुणस्थानो मे छट्टने, पांचवे चौथे में गौणरूप से धर्मध्यान होता है। श्रमेध्यान उत्तरवर्ती गुणस्थानों मे अर्थात् आठवे नवमे दसवे गुणस्थानो में होता है। इस गुणस्तानों मे महामुनि समस्त प्रमाद से रहित होकर बाच क्रियाओं से विरत होकर निरन्तर ध्यानमे स्थिर होने के कारण बाहा आवधकादि क्रियाओं का परिहार हो जाता है। इसके पहले पहले आवश्यक आदि क्रियाओं का पालन करना अनिवार्य हो जाता है ।
अपूर्वकरण गुणस्थान
खवएसु उवसमेसु य अवणामेसु हव तिप्यारं । सुषकझाणं पियमा महुत्त सवियश्क सविकार ।। ६४३ ।। ( भा. मं. | पृष्ठ २९४ ) क्षपकश्रेणी वा उपशम श्रेणी आरोहण करने वाला जीव जब अपूर्वकरण गुणस्थान मे पदार्पण करता है तब वहाँ पर पृथक्त्व वितर्क नामक शुक्लध्यान प्रारंभ होता है । द्रव्य-गुण- पर्यायों की संक्रमण अपेक्षा पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्लध्यान तीन प्रकार या अनेक प्रकारका होता है
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अनिवृत्ति गुणस्थान
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सुक्कं तत्थं पडतं जिर्णेहिं पुण्युत्तलक्षणं ज्ञानं ।
पत्थि नियत्ति पुणरत्र जम्हा अणियति तं तम्हा ।। ६५० १३ ( भा. मं. पृष्ठ २९७ ) इस गुणस्थानोमे पूर्वोक्त प्रथम पृथक्त्ववितर्क नामक बल म्यान होता है। यहां पर जीव के परिणाम विशुद्धि मे निवृत्ति नही होती है । इसलिए इस गुणस्थान को अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते है ।
सूक्ष्म सांवराय गुणस्थान
धुनको भयवत्थं, होदि जहा सुमयसंत्तं ।
एवं सुहुमकसाओ, सुहमसरागोत्ति णादण्यो ।। ५८ ।।
( गौ. जी. पृष्ठ १२१ )