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छठवे, सातवे न रकमें देवों का गमन न होने से धर्मश्नवण तो है ही नहीं लकीन जाति मर । है । तथा वेदना कर स्त्री के पापसे भयभीत होना व दोही कारण है । इन कारणों को पाकर किसी जीवके सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है। इस नयसे कोई भव्य जीव पापके उदयसे खोटि गतिमें गया वहाँ जाकर यदि सुलट जावे तथा सम्यक्त्व पावे तो व कुगति भी बहुत श्रेष्ठ है, ग्रही योगीन्द्राचार्य ने मूलमें कहाँ है की जो पाप जीवोंको दुःख प्राप्त करा करके फिर शीघ्र ही मोक्ष मार्गमे बुद्धि को लगावे, तो वे अशुभ भी अच्छे है । तथा जो अज्ञानि जीव किसी समय अज्ञान तपसे देव भी हुआ और देवसे भरकर एकेन्द्रिय हुआ तो वह देवपना किस कामका । अज्ञानीक दवपना भी वृथा है । जो कभी ज्ञान के प्रसादसे उत्कृष्ट देव होके बहुत क ल तक सुख भोगके देवसे मनुष्य होकर मुनित्रत धारण करके मोक्षको पावे तो वह भी अच्छा है।
ज्ञानी पुरुष उन पापियोंको भी श्रेष्ठ कहते है, जो पापके प्रभावमे दुःख भोगकर उस दुःख से डरके दुःख के मूल कारण पापको जानके उस पापम उदास होवे, बे प्रशंमा करने योग्य है, और पापि जीव प्रशंसाके योग्य नहीं है । क्यों की पाप क्रिया हमेशा निंदनीय हूं । भदाभेदरलत्रय स्वरुप श्री वीतराग देवके धर्म को जो धारण करते हैं वे श्रष्ठ है । यदि सुखी धारण करे तो भी ठीक और दुःखी धारण करे तब भी ठीक क्यों की शास्त्राका वचन है की कोई महाभाग दुःखी हूए ही धर्म में लवलीन हाते है ।। ५६ ।। ( परमात्म प्रकाश )
दुःख में सुमरन सब करे, सुःख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमरन कर, दुःख काहेका होय ।।
अर्थ- साबा गत ससारी जीव दुःखके समयमें धर्म का आचरण करता है । परन्तु धर्म के कारण किंचित सुख प्राप्त होनेसे धर्मको ही भल जाता है, पापादिक क्रियाओंमें लग जाता है, तब पुन: दुःख प्राप्त होता है। यदि जीव सुख के समयमे भी धर्म आचरण करने लगंगा तो कभी भ दुःख नही होगा | ..
कृत्व. धर्मविघातं विषयसुखान्यनु भवन्ति ये मोहात् । आच्छिा तरुन मूलात् फलानो गृहन्ति ते पापा: ।।२४।।