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में से केवलज्ञान को उत्पन्न करके जैसे दर्पण मे घटपटादि पदार्थ झलसे है उसी प्रकार ज्ञान रूपी दपंण में सब लोकालोक भासते है । इससे ह बात निश्चय हुई कि आत्मा के जानने से सब जाना जाता है ।
___ यहाँपर सारांश यह है कि इन चारों व्याख्यानों का रहस्य जानऔर बाह्य अभ्यन्तर सर्व परिग्रह छोडकर सर्व तहसे अपने शुभारमा को भावना करनी चाहिये । । अब केवलनान श्रुतज्ञानिनोरवि शेष दर्शनेन विशेषाकांक्षा क्षोभ
क्षपति
अब केवलजाती तथा श्रुतज्ञानों के विशेष दिखलाते हुए विशेष आकांक्षा के क्षोभ को नष्ट करते है।
जो हि सुदेण विजाणादि अपपाणं जाणगं सहावेण । त सुयके वलिमिसिणो भणन्ति लोपप्पीवयरा ।।
(प्रवचनसार – ३३ ) जो वास्तव में श्रुतज्ञान से (निविकला रुप भावयुत परिणाम से) स्वभाव से ज्ञायक स्वभावी आत्म द्रव्य को जानता है । लोक के प्रकाशक ऋषीगण उसको श्रुतकेवली कहते है ।
या कर्ता स्फुटं निर्विकारखं स्वसबित्ति रुप भाव श्रुत परिणामेन विजानाति विशेषण जानाति । विषय सुखानन्द विलक्षण निज शुद्धामोत्यपरमानन्देक लक्षण सुखरसास्वादनानुभवति । कम् । निजात्म द्रव्यं कथ भूतं । ज्ञायक केवलज्ञान स्वरुपं । केन कृत्वा । समस्त विभावरहित स्वस्वभावेन । तं महायोगीन्द्र श्रुतकेवलिनं कथयन्ति । के कर्तारः । ऋषयः । कि विशिष्टाः । लोकप्रदीपकरा: लोकप्रकाशकाः इति । अतो विस्तर:- युगपत् परिणत समस्त चैतन्यशालिनः केवलज्ञानेन अनाद्यनन्त नि:कारणान्यद्रव्यासाधारण स्वसंवेद्यमान परम चैतन्य सामान्य लक्षणस्य परद्रव्यरहितत्वेन केवल य त्मन आत्मनि स्वानुभवनाद्यथा भगवान केवलो भवति, तथायं गणधरदेवादि निश्चय रत्नत्रयाराधकजनोपि पूर्वोक्त लक्षणस्यात्मनो भावश्रुतज्ञानेन स्वसंवेदनानिश्चयाश्रुत केवलो भवतीति । किंच यथा कोपि देवदत्त आदित्योदयेन दिवसे पश्यति रात्रौ किमपि