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प्रदीपेनेति । तथादित्योदयस्थानीयेन केवलज्ञानेन दिनम स्थानीय मोक्ष पर्याय भगवानात्मानं पश्यति । संसारी विवेकजनः पुननिशास्थानीय संसारपर्याय प्रदीपस्थानी येन रागादि-विकल्प त परम समाधिना। निजात्मानं पश्यतीति । अथमत्राभिप्राय: आत्मोपरोक्ष: कथं ध्यान : क्रियते इति सन्दह कृत्या परमात्म भावना न त्यज्यति ।
(प्र. सा. ता. वृ. गा. ३३ पृ. ७८)। जो कोई पुरुष निश्चय से निर्विकार स्वसंवेदन रुप भावभुत रुप परिणाम के द्वारा समस्त विभाओं से रहित स्वभाव से ही जायक अर्थात केवलज्ञानरुप निज आत्मा को विशेष करके जानता है । अर्थात विषयों के सुख से विलक्षण अपने निज शुद्धात्मा की भावना के बल में पैदा होने वाले परमानन्द मथी एक लक्षण को रखनेवाले सुख रस के आरवाद मे : अनुभव करता है । लोक के प्रकाशक ऋषी उस महायोगीन्द्र को श्रुतकेवली कहते है।
इसका विस्तार यह है कि एक समय मे परिणमन करनेव ले सर्व चैतन्यशली केबर ज्ञान के द्वारा आदि अन्त मे रहित अन्य किसी कारण के बिना दूसरे द्रयों में न पाईये ऐसे असाधारण अपने आपसे अपने में अनभवाने योग्य परम चैतन्य रुप सामान्य लक्षण को रखनेवाले तथा ! पर द्रव्य से रहितपने के द्वारा केबल एंसे आत्मा का आत्मा से स्वानुभव। करने से जैसे भगवान केवली होते है वैसे ही यहां गणधर आदि निश्चय सनत्रय के आराधक पुरुष की पूर्व मे कहे हुए चैतन्य लक्षणधारी श्रुत ज्ञान के द्वारा अनभव करने से श्रुतकेवली होते है । प्रयोजन यह है कि जैसे कोई एक देवदत्त म का पुरुष सूर्य का उदय होने से दिवस में देखता है और रात्रि में भी दीपक के द्वारा कुछ देखता है, वैसे सूर्य के उदय के समान केवलज्ञान के द्वारा दिवस के समान मोक्ष अवस्था के । होते हग भगवान के.वलो आत्मा देखते हैं और संसारी विवेकी जीव रत्री के समान ससार अवस्था में दं पक के समान रागादि विकल्पों से - रहिल परम समाधि के द्वारा अपनी अत्मा को देखते है । अभिप्राय यह है कि आत्मा पर क्ष है उसको ध्यान कैसे किया जाय ऐसा सन्देह करके परमाताको भावना को नहीं छोड देना चाहिये ।