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१२७ दूरे सर्व प्रकारेणापहर त्यज । तात्सर्यार्थ। निविकल्प समाधौ सर्वत्र तराग विशेष गं किमयं कृतम् इति पूर्वपक्ष: 1 परिहारमाह । यतएव तो: वीतरागस्तत एव निबिकल्प इति हेतु हेतु मद् भावज्ञापनार्थम् अथवा ये सरागिणोऽपि संतो वयं निविकल्प समाधिस्थ इति वदंति निषेधार्थम अथवा श्वत्तसंखवत्स्वरुप विशेषणमिदम् इति परिहारत्रयं निर्दोष परमात्म शब्दादि पूर्वपक्षेऽपि योजनीयम् ।। २८ ।। । भावार्थ:- ज्ञानस्वरुप निज शुद्धात्मको निर्विकल्प समाधिमे स्थिर होकर जान अन्य परमात्म स्वभाव से विपरित पांच इन्द्रियों के विषय वगैरह सब बिकार परिणामों को दूर से ही त्याग, उनका सर्वथा ही त्याग कर । यहाँपर किसी शिष्यने प्रश्न किया कि निर्विकल्प समाधि मे सब जगह बीतराग विशेषण क्यों कहा है ? उसका उत्तर कहते है - वहाँपर वीतरागता है, वहीं निर्विकल्प समाधीपना है, इस रहस्य को समझने के लिये अथवा जो रागी हुए कहते है कि हम निर्विकल्प समाधि मे स्थित है उनके निषेध के लिये वीतरागता सहित निर्विकल्प समाधि का कथन किया गया है । अथवा सफेद शंख की तरह स्वरुप प्रकट करने के लिये कहा गया है अर्थात जो शंख होगा, वह श्वेत ही होगा उसी प्रकार जो निर्विकल्प समाधि होगी, वह वीतरागतारुप ही होगी ।। २८ ।।
गृहस्थ गमेद रत्नत्रयस्वरुपमुपादेयं कृत्वा भेद रत्नत्रयात्मक धायक धर्म कर्तव्य: यतिना तु रत्नत्रये स्थित्वा व्यावहारिक रत्नत्रयवलेन
स्वात्मस्थ स्वरुपं विश्व व्यापिरुपं
प्रमाण स्वरुपं अप्रमाण रुपम् । सर्वात्म स्वरुप स्यावाद स्वरूप
चिदानन्द रुपं नमो स्वरुप । ५ ।। ध्यानातीत रुपं ध्यानमय रूपं
मानमय रूपं ज्ञेयातील रु म् । सदसवरूप अस्तिन.स्ति रुप
चिदानन्द रुपं नमो स्वस्वरूपम् ।। ६ ॥