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जो शुद्ध भात्र सेवन करने योग्य है। उसकी प्राप्ति पन्द्रह प्रकार प्रमाण से रहित सकल चारित्र से युक्त अप्रमत्त विरत गुणस्थान मे होती है।
इन्द्र विस विरामे मगस्स पिल्लूरणं हवे जया । सइया तं अविअप्प सप्रू अप्पनो तं तु ॥
( तत्वसार
गा. ६ )
जब इन्द्रिय विषयों से विरक्त हुआ मन स्थिरता को प्राप्त होता है तब निर्विकल्प तत्त्व अपने स्व स्वरूप में स्थिरता को प्राप्त होता है.
समणे णिचचल भूये गठ्ठे सब बियप संबोहे | थमको सुद्ध सहायो अवियप्पो विलो णिच्चो ॥ ( तत्त्वसार
गा. ६ )
सर्व विकल्प समूह नाश होनेपर एवं मन स्थिर होनेपर निर्विकल्प स्थिर, निश्चय, नित्य अर्थात शाश्वत ऐसा जो शुद्ध स्वभाव प्रगट होता है ।
ध्याता का लक्षण:
न देवं न न न नारकी रुपं
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मा मुज्हह मा रज्जह मा बुस्सह हठ्ठाणिडु अठ्ठेसु । स्थिर मिच्छहि जह घिसं विचित्त झाणप्प सिद्धीए ||
(द्र.सं.
हे भव्य जनों ! यदि तुम नाना प्रकार के ध्यान अथवा विकल्प रहित ध्यान की सिद्धि के लिये चित्त को स्थिर करना चाहते हो तो
न लिंग नालिंग लिंगातीतरूपम् ।
न आद्यं न मध्यं न अन्तं न शून्यं
fears रूपम् नमो स्वस्वम् ।। ९ ।। निर्वण्यं निद्वन्द्वं निर्मम् निर्दोषं
निक्षोभ निष्काम मयातीत रुपम् ।
अक्षयं अनन्तं गुणाधीश रूपं
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चिदानन्द रूपं नमो स्वस्वरूपम् || १० ||
गा. ४८ }