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११६ दान आदि का व्यवहार है । तो भी वीतराग निविकल्प समाधि में लोन हुए योगीश्वरों को उस समय में बाह्य व्यापार के अभाव होने से स्वयं ही द्रव्य पूजा का प्रसंग नहीं आता भाव पुजा में ही तन्मय है।
( टीका परमात्म प्रकाश । १२३-२। शुखात्मानुभूति:
सम्यग्दृष्टी जनः पुनरभेद रत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प समाधिवलेन । कतकफल स्थानीयं निश्चय नयाश्रित्य शद्धात्मानमनुभवतीत्यर्थः ।
(स. सा. ता. व. - पृ. १३) । अर्थ:- जो सम्यग्दृष्टी जन होता है वह तो अभेद रत्नत्रय लक्षण निविकरूप समाधी के बल मे कतक स्थानिक निश्चय नय का आश्रय लेकर शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है । ननु-वीतराग संवेदन विचार काले बीतराग विशेषणं किमिति क्रियते प्रचुरेण भवन्धिः कि सरागमति स्वसंवेदन ज्ञानमस्तीति ?
__ अत्रोत्तर विषय सुखानुभवानन्द रुप स्वसंवेदन ज्ञाने सर्वजन प्रसिद्ध सरागमप्यस्ति । शुद्धात्मसुखानुभूतिरुप संवेदनज्ञानं वीतरागमिति ।। इदं व्याख्यानं स्वसवेदन ज्ञान व्याख्यान काले सर्वत्र ज्ञातव्यमिति भावार्थ:।
स. सा. ता. वृ. १०३ - पु ८९ शंका:- बीतराग संवेदन विचार काल में आप ने जो बार बार वीतराग विशंषण दिया है वह क्यों देते आ रहे है क्या कोई सराग स्व संवेदन ज्ञान भी होता है ?
समाधान:- इस के उत्तर मे आचार्य उत्तर देते है कि भाई विषय सुखानुभव के आनंदरुप स्वसंवेदन होता है वह सर्वजन प्रसिद्ध है ।। अर्थात वह सब लोगों के अनुभव मे आया कस्ता है, वह सराग होता है। किन्तु जो शुद्धात्मा के सुखानुभव रुप स्वसंवेदन ज्ञान होता है वह वीत. राग होता है । इसी प्रकार स्वसंवेदन ज्ञान के व्याख्यान काल मे सब ही स्थान पर समझना चाहिये ।।
बिषय कषाय निमित्तोत्पन्नातं रौद्रध्यान पेन परिणतानां |