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म से नवम गुणस्थान में प्राप्त होते हैं, वहाँ कषायों का सर्वथा नाश होता है, एक सज्वलन लोन रह जाता है इसलिये स्वसंवेदन ज्ञान का बहुत जादा प्रकाश होता है, परन्तु एक संज्वलन लोभ बाको रहने से यहाँ सराग चारित्र ही कहा जाता है । जब दसवें गुणस्थान मे सूक्ष्म लाभ नहीं रहता है तब मोह की अट्ठावीस प्रकृतियों के नष्ट हो जानें से वीतराग चारित्र की सिद्धि हो जाती है । दसवें से बारहवें में जाते है । ग्यारहवें गुणस्थान का स्पर्श नहीं करते है । वहाँ निर्मोह वीतरागी के शुक्ल ध्यान का दूसरा पाया ( भेद ) प्रकट होता है । यथाख्यात चारित्र हो जाता है। बारहवें के अन्त में ज्ञानावरण-दर्शनावरण अन्तराज इन तीनों का भी विनाश कर डाला, मोह का नाश पहले हो ही चुका मे था। तब चारों घाति कर्मो के नष्ट हो जाने से तेरहवें गुणस्थान केवलज्ञान प्रकट होता है | वहाँपर ही शूद्ध परमात्मा होता है अर्थात उसके ज्ञान का पूर्ण प्रकाश हो जाता है, निकषाय है ।
वह चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थानतक तो अन्तरात्मा है, उसके गुणस्थान प्रति चढती हुई शुद्धता है, और पूर्ण शुद्धता परमात्मा के है, यह सारश समझना ।
रागादि मल जुवाणं, नियधरुवं ण विस्सवे किपि । समला वरिसे रूवं ण विस्सेव जह सहा णेयं ॥
( रयणसार
स्वरुप स्तोत्रम् ( १ )
जिनं शुद्ध ज्ञानी सिद्ध आत्म रूपं सूक्ष्मं परं श्रेष्ठं परमार्थ रूपम् | अव्यक्तं अव्ययं अनादि अनन्तं
चिदानंद रूपं नमो स्वस्वरूपम् ।। १ ।।
स्वयम्भूः श्रीधरः अच्युतो माधवः सुगतः कामारि निरंजनरूपम् । पूर्ण शून्यरूपं द्वैताद्वैत रूपं
शिवानंदरूपं नमो स्वस्वरुपम् ॥ २ ॥
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