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। अर्थ :- लरिनान्स-सिद्ध चैत्यालय-प्रवचन-मुनिगण-भेद-विज्ञानादि आहश्नुत की भक्ति आदि से अत्यधिक पुण्य बन्ध करता है। परन्तु कर्म आस नहीं करता है। - इस आर्ष वचन से सिद्ध होता है व्यवहार स्वरुप शुभ क्रियायें हेय
समाधान:- ण च ववहारणो वपलओ तत्तो ववहाराणुसारि सिस्साणं पत्ति दसणादो। जो बहुजीवाणु पहकारी बदहारणओ सो चेव समस्सिदयो त्तिममोणावहारिय गोद गयेरेण मगलं तत्थ कयं ।
अर्थ:- यदि कहा जाय कि व्यवहार नय असत्य है सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे व्यवहार का अनुसरण करनेवाले शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है। अतः जो व्यवहार नय बहुत जीवों का अनुग्रह करनेवाला है उसी का आश्रय करना चाहिये ऐसा मन मे निश्चय करके गौतम स्वविर ने चौबीस अनुयोग के द्वारों के आदि में मंगल किया है।
वीरसेनाचार्य । ज. प. पु. पृष्ठ ७-८ ण च अप्पमाणपुरस्सरो ववहारो सच्चत्तमल्लियइ । ण च एवं' बाहविवज्जिय सम्व ववहाराणं सच्चत्तुवलंभादो ।
अर्थ:- अप्रमाण पूर्वक होनेवाला व्यवहार सत्यता को प्राप्त नहीं हो सकता है । यदि कहा जाय कि सभी व्यवहार अप्रमाण पूर्वक होने से असत्य मान लिये जाय सो भी बात नहीं है, क्योंकि जो व्यवहार बाधा रहित होते है उन सब में सत्यता पाई जाती है।
सज्जन लमानं नहि कवापि सलिल:
___ अग्नि संपर्केन उष्णमेव अतिशीघ्रः । वावालन अग्नि सम दर्शन: सम्पर्क
सज्जन स्वशीतलता न त्यो त्रिकाले ।। २० ।। निन्दा प्रशंसा प्रसंगो शत्रू मित्र वर्ग
लाभालाभे जीवित मरणे सर्वकाले । समुद्रवत् गम्भीरं मेरुयत स्थिर
यः तिष्टत सयेष सज्जन: पौरः वीरः ॥ २१ ॥