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कर्म के लिये कारण, राजा, महाराजा, चक्रवर्ती, तिर्थंकर प्रकृति के लिये कारण है इसलिय मोक्ष पद की प्राप्ति के लिए कारण है। इस लिये आचार्य ने बताया है " वन्त्रे तद्गुण लब्धये भक्त ही भक्ति के माध्यम से संपूर्ण कर्म को नष्ट करके भगवान बन जाता है ।
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दासोहं रहता प्रभो ! आया जब तुम पास दे वर्शन ही हट गयो " सोsह " रहो प्रकासु ।।
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सोऽहं सोऽहं " ध्यावतो रह नहीं सको सकार ।
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दीप
अहं मम हो गयो अविनाशी अधिकार |
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गुरूपास्ति:- ( साधु सेवा )
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जैन धर्म रुपी रथ-श्रावक और मुनि च रूपी अवलंबन से गतीशील होता है । उसमें से एक भी चक्र के अभाव में धर्म रुपी रथ आग नहीं वह सकता जब तक जिवंत धर्म स्वरुप मुनियों का सद्भाव रहेगा तब तक धर्म रहेंगा, तब तक श्रावक भी रहेंगे। क्योंकि, न धर्मो धार्मिकवींना " इसीलिये दूरदृष्टी एवं सूक्ष्मदृष्टी धर्म प्रवर्तकों की एवं प्रचारकोने धर्म की स्थिरता एवं धर्म की गतीशीतता के लिये विनय वैयावृत्त्य, वात्सल्य, उपगूहन, स्थितिकरण और प्रभावनादि धर्मप्रचारप्रसार का उपाय रखे है ।
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सेज्जागास णिसेज्जा उबधिपडिले
जयग्गहिदे ।
आहारो सह वायण त्रि किं चत्वत्तमादीसु ।। ३०५ ।। ( भगवती आराधना
अाण तेण सावयरायणदोरा में गासिवे ऊमे । वेज्जावच्चं उत्त सगहणारक्खणी वेदं ।। ३०६ ।।
शयनस्थान, बैठनेका स्थान, उपकरण इनका शोधन करना, निर्दोष आहार - औषध देकर उपकार करना, स्वाध्याय अर्थात उपदेवा (व्याख्या करना, अशक्त मुनि कां मैला उठाना, उसे करवट दिलाना बैठाना वगैरह कार्य करना थके हुए साधू के हात पैर दबाना, नदी से रुखं हुए अथवा रोग पिडीत का उपद्रव विद्या आदि से दूर करना दुर्भिक्ष पिडीत को सुमिक्ष देश में लाना ये सब कार्य वैयावृत्य कहलाते
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