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धर्माय रंधनकतां किलपापमेषा । मेवं वदनापि न लज्जित एव दृष्टः ॥
(धर्मरलाकर ) जो गृहम्य धर, परिग्रह, तथा भोगोंमे आसक्त होकर बहुतसे त्रस जीओं के धान के कारणभूत खेती आदिक कार्यो को करते है उन्हे धर्म के लिये भोजन के तैयार करने मे पाप का भागी कहनेवाले दुपर को लज्जा नहीं आती ? ( तात्पर्य मुनियोका आहार देने के लिए जो आरंम होता है उससे पाप अल्प और पुण्य महान होता है अत: ऐसे आरंभ का निषेध करना अनुचित है।
एवं विधस्याप्य बुधस्य वाक्यं सिद्धांत वाह्ययं बहु बाधकं च । मूढा दृखं अवधते कदर्याः पापे रमतेऽमतयाः सुखेन ।।
(ध, रलाकर ) जो अज्ञानी जन लोभ के वशीभूत होकर इस प्रकार बोलनेवाले मूर्ख के भी आगमबाह्य और अतिशय बाधक बचनपर स्थिर श्रद्धा करते है वे दुर्बुद्धि पाप मे आनंद से रममाण होते है ऐसा समझना चाहिए । पुण्य पाप:
वांका:- भले पूजादी से पाप बंध से बच सकते है किंतु पुण्य बंध से नहीं बच सकते है । पुण्य भी संसार का कारण है । यथा क-ममसुहं
कुसील सुहकम्मं चावि जाणह सुसील । किह त होचो सुसील जं संसार पवेदि ।। १४५ ।।
( समयसार) अशुभ कार्य कुशील पापरुप है । शुभ कर्म पुण्य सुशील स्वरूप है ।
(६) अद्वितीय वस्तु वीतरागानापरो वेवः आगमन्नापरो वेदः 1 निग्रन्थान्नापरो गुरु: अहिंसानापरो धर्मः ।। १ ।। न ज्ञानात् परो ज्योतिः न अज्ञान समं तमः । न समता समं सुखं न तरुणात्परो दुःखम् ।। २ ।।