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इस आरंभ का चूंकी हेतु भिन्न स्वरुप, भिन्न विषय, गिन्न सबंध भी भिन्न है । इसलिये वह पुण्य बध का कारण होता है ।
लोभादि हेतुकः पापारभो गेहादि गोचरः । पापानुबंधी सत्याज्यः कार्योऽन्यः पुण्य साधनः ॥ ३४१ ॥
( घ. रत्नाकर ) लोभ के कारण जो गृह कुटुंबादीके विषय मे आरंभ किया जाता है वह पाप का बंधक होने से छोड़ने के योग्य है । परंतु दूसरा जिनगृह व जिनप्रतिमा के निर्माणादि तथा आहार दानादि विषयक आरंभ पुण्य का बंधक होनेसे आचरणीय है। धमारंभस्तस्य रज्यति जनः किर्ती: पराजायते ।
राजानोऽनुगुणा भवैति रिपयो गच्छंती साहायकम् ।। चेतः कांबन नित्ति च लभते प्रायोऽयमलामापरः । पापारंभ भरा घनार्य विरतिश्चेति प्रतिता गुणाः । ३४२,
(घ. रत्नाकर ) लो भव्य धर्म के निमित्त आरंभ मे निरत होता है, उससे लोग प्रेम करते है । उसे उत्तम किर्ती का लाभ होता है, राजा उसको अनुकल होता है, शत्रू सहाय्यक होता है। उसका चित्त किसी अभूतपूर्व शांति को प्राप्त होता है । उसे प्राय: वहुत धन का लाम होता है । तथा बह प्रचूर पापारंभ म परिपूर्ण अनोंसे -निरर्थक कर्मोमे बिरक्त होता है। इस प्रकार धर्मारंभ मी तत्पर भव्य के ये प्रसिद्ध गुण हुआ करते है।
म मिथ्यत्वात्प्रमाांद्वा काषायावा प्रवर्तते । श्रासो द्रव्यस्तवे हेन तस्य अंघोजस्ती नाशुभः ।। ३४३ ।।
श्रावक चुकि मिथ्यात्वसे, प्रमादसे, अथवा कषायसे द्रव्यस्तव मे । पूजा-प्रतिष्ठा एवं दानादिरूप बाह्य संबम मे प्रवृत्त नहीं होता है, इस. लिपे उसको अशुभ का बंध नही होता है से करना चाहिये । कृष्यादि कर्म बहुजंगय जंतुति ।।
कुर्वति ये गृह परिग्रह मोगसक्ताः ।।