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अवती बतमादाय प्रती ज्ञानपरायणः । परमात्मज्ञानसम्पन्न: स्वयमेव परो भवेत् 11 ८६ ॥
समाधि शतक अन्नती सराग चारित्र रूप मुनि धर्म को स्वीकार करके भेद ज्ञान सम्पन्न होकर आत्मा में लीन होता है उस समय स्वयमेव ही समस्त सकल्प विकल्प व्रत, अव्रत निश्चय व्यवहार से परे होकर निर्विकल्प रुप परमात्म स्वरुप बन जाता है। यह परमात्म पद प्राप्त करने का त्रिकाल अबाधित परम सत्य सिद्धांत है । गीतक जो अनंत सिद्ध हए, सिद्ध हो रहे है, आगे होंग, वे सभी इसी मार्ग के द्वारा ही हए है अन्य कोई दुसरा मार्ग नहीं है।
उदा. :-- आमरस का आस्वादन करना लक्ष्य है तो उसके लिये पहले बीज चाहिये । बीज से वृक्ष, योगावस्था, प्राप्त होनेपर वृक्ष मे फूल आते है फुल से कैरी, करी से अपक्व आम, उसमे रस पश्चात् आस्वादम होगा । जिस समय रस का आस्वादन होता है उस समय न बृक्ष, न फूल न कच्चा आम, न गुटली आदि रहती है केवल वहां रस ही रस है । रसाबस्था में अन्न अन्य प्रारंभिक अवस्थाएं नहीं रहने पर भी बिना प्रारंभिक अवस्था के बिना रस की प्राप्ति नहीं हो सकती।
यदि विचार करे कि हमें तो रस चाहिये । बीज, वृक्ष, फूलादि नहीं चाहिये । बीज के बिना वृक्ष कैसे होगा, वृक्ष के अभाव में फूल कैसे होगा, फल के विना फल कैसे होगा ? यदि हम सोचे कि फल में तो आम रस नहीं है इसलिये फूल को तोड़कर फेक दे तो फल की प्राप्ति हो सकती है क्या ? फल के अभाव मे रस की प्राप्ति कैसे होगी ? परंतु वीज अंकुर होकर वृक्ष रुप परिणित हो जाता है तो स्वयमेव नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार फूल से फल बन जाता है तब स्वयमेव फूल योग्य समय में गिर जाता है फूल को तोडना नहीं पड़ता है। यदि योग्य सगय के पूर्व ही फूल को तोड़ देंगे तो फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है । इसी प्रकार निर्विकल्प आत्मानुभव रूप रस प्राप्त करने के लिये आत्म रूप भूमि मे सम्यक्त्व रुप बीज रोपण करना होगा। इसके लिये मिथ्यात्त्व हिंसा, झूठ, चोरी, अन्याय, अत्याचार, दुराचार, कुशील, अतिकांक्षा,