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उसमें भी एक महान आगमिक एवं आध्यात्मिक सूक्ष्म रहस्य भरा है अर्थात् सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान और सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक चारित्र होता है। अन्य भी एक कारण है जो कि सम्पग्दर्शन पूर्ण होने के बाद मी साक्षात तत्वाल मोक्ष नहीं मिलता है, जैसे क्षायिक सम्यग्दर्शन चतुर्दा गुणस्थान में पूर्ण होने पर तत्क्षण मोक्ष नहीं होता है। कोई जधन्य से एक भव और उत्कृष्ट से ४ भवों तक परिभ्रमण करता है।
सम्यग्ज्ञान १३ वे गुणस्थान में पूर्ण हो जाता है तो भी तत्क्षण मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है जघन्य से अन्तर्मुहुर्त से लेकर उत्कृष्ट से से कुछ कम एक पूर्व कोटी वर्ष तक संसार में रुका रहता है । चौदहवें गुणस्थान के अंत में शैलेश अवस्था प्राप्त होती है एवं चारित्र पूर्ण होला है सम्पूर्ण कर्म नष्ट होकर शाश्वतिक मोक्ष पदवी प्राप्त होती है । इस सिद्धांत को जब हम सुक्ष्म दृष्टि से अबलोकन करते है कि सम्यग्दर्शन की पूर्णता माक्षमार्ग की पूर्णता नहीं है, किंतु सम्यक चारित्र की पूर्णता नहीं है, सम्यग्ज्ञान की पूर्णता भी मोक्षमार्ग को पूर्णता नहीं है, किंतु सम्यक्चारित्र की पूर्णता ही मोक्षमार्ग की पूर्णता है । इसलिये सूत्र में पहले सम्यग्दर्शन को उसके पश्चात सम्यग्ज्ञान और शष में सम्यक्चारित्र को रखा है । मोक्ष मार्ग का प्रारं+ सम्यग्दर्शन से एवं पूर्णता सम्यकचारित्र से होती है। जहां पर सम्यक् चारित्र है वहां सम्यग्दर्शन व मम्यग्ज्ञान निश्चित रुप से रहेगे ही, कित जहां पर सम्यग्दर्शन व सम्पज्ञान है वहां पर चारित्र भजनीय है अर्थात हो भी सकता है और नहीं भी । जैसे किसी के पास दस हजार रुपये है उसके पास सौ रुपये, दस रुपये है ही । किंतु जिसके पास दस रुपये और सौ रुपये है उसके पास हजार रुपये हो भी सकते है, नहीं भी हो सकते है । इसलिये मोक्षमार्ग का धनी सम्यक्चारित्रवान जीव है ।
जो इंदिएसु विरदो णो जोवे थावरे तसे वापि । जो सद्दहवि जिणुतं सम्माइछी अविरदो सो ॥ २९ ।।
( गो. सार. ) जो इंद्रिय के विषयों से विरत नहीं है तथा अस और थावर जीवों की हिंसा से भी विरत नहीं है केवल जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रति