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वीतराग सर्वज हितोपदेशी भगवान के द्वारा प्रतिपादित तत्व त्रिकाल अवाधित परम सत्य एवं सूक्ष्म है । जो कि परोक्ष मतिज्ञान श्रुतज्ञान के अवयवभूत हेतु, तर्क, उदाहरण से खण्डित नहीं होता है । जिनेन्द्र भगवान अन्यथावादी नहीं होते है । इसलिये उनकी आज्ञा ग्रहण करने योग्य है, यहां से ही सम्यग्दर्शन का प्रारंभ होता है, आज्ञा सम्यक्त्व तलहदी ( आधारशिला ) है उसके ऊपर अन्य अन्य सम्यग्दर्शन रुपी महल अवस्थित है।
कुछ वर्ष पूर्व जैन धर्म के अनेकांतवाद स्याद्वाद, धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय, कॉलद्रव्य, परमाणुवाद, वनस्पति एकेन्द्रिय है इत्यादि सिद्धांत अन्य कोई दर्शन एवं विज्ञान नही मानते ये वर्तमान वैज्ञानिक शोध से उपरोक्त समस्त विषय को आज वैज्ञानिक जगत एवं साधारण जन भी मानने लगे है । विज्ञान की नवीन नवीन शोध से जैन धर्म की प्रमाणिकता अधिक अधिक दुनिया के सन्मुख स्पष्ट स्पष्ट होता जा रहा है, इससे सिद्ध होता है कि जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रणीत समस्त सिद्धांत सत्य पूर्ण और तथ्यपूर्ण है, इसलिये जो जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा को नहीं मानता है वह मिथ्यादृष्टी है। ५) देशविरत:
सम्यग्दर्शन होने के बाद जीव की सुप्त अवस्था नष्ट होती है । विपरीत श्रद्धान नष्ट होने के पश्चात आत्मा की उन्नति के लिये अथवा मोक्ष प्रयाण के लिये उठकर खड़ा होता है परंतु पूर्व संस्कार के कारण चारित्र मोहनीय के तीन उदय से मोक्ष मार्ग के साधन मत किसी प्रकार का चारित्र धारण नहीं कर पाता है। जब देश चारित्र प्रतिबंधक अप्र
- पुरिसो - पुरु गुणा णुराई पुरु साध्ये जो होई लोण | पर णिव अप्पा पसंस्सा रहियो जो सो हबई पुरिसो ।। १७ ॥
- इत्थी - माया काम मुत्ति कलहो कुछ बचणाणु राई । पर दोस संसणो पण्णा अप्पा दोस छापणा इत्थी ।। १८ ।।