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पूर्वो त पंचेन्द्रिय तिर्यच तीन कारणों से प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करते है - कितने ही तिर्यंच जाति स्मरण से, कितने ही घोपदेश सुनकर और कितने ही जिनबिंब दर्शन करके सम्यक्त्व प्राप्त करते है । कधं जिबिंव देसण पढम सम्मत्तुप्पत्तीए कारण ?
जिविध सणेण पिवत्त णिकाचिदस्स दि मिच्छसादिक कम्मकलावस्न खय दसपादो। तथा चोक्तं :
वर्शनेन जिणेन्द्राणां पापसंघातकुंजरम् । शतथा भेवमायादि गिरिवञहतो यथा ॥१॥
(व. पु. ६ पे ४२७-४२८) शंका:- प्रथम सम्यक्त्व को उत्पत्ति का कारण किस प्रकार होता
समाधान:- जिनजिब के दर्शन से मियत और निकाचित रुप भी मिथ्यात्ववादी कर्म कलाप का क्षय देखा जाता है जिससे जिनबिंब का बर्शन प्रथम सम्यक्त्व को उत्पत्ति का कारण होता है । कहा भी है:
जिनेन्द्रों के दर्शन से पाप संघात रुपी कुंजर के सो टुकड़े हो जाते है, जिस प्रकार कि वज्र के आधात से पर्वत के सौ टुकड़े हो जाते है ।
प्रत्येक कार्य अन्तरंग - बहिरंग कारणों से होता है । सम्यक्त्व उत्पत्ति के लिये अन्तरंग कारण सम्यग्दर्शन प्रतिबंधक कर्मों का उपशम क्षयोपशम, क्षय, निमित्त है तथा बहिरंग कारण जिनबिंब दर्शन, जाति स्मरण, धर्म उपदेश, देवद्धिदर्शन, वेदनानुभवादि है । जिनबिंब अचेतन होते हुए भी मूर्ती की वीतरागता, सौम्यता आदि माध्यम से जो आत्म
-- जीव - अस्थित वस्युथ पमेयत्त अगुरु लहु भावो । उप्पाद यह धुव्व सभ्य बबाण सामण्णो धम्मो ।। २५ ॥ चेवण गाणं वसणं सुह अणंत विरीय अस्थावाहं । जिम्मम जिरापेक्खं जीवाणं उत्तमो धम्मो ।। २६ ।।