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विशुद्धी होती है उसके कारण जो वज़ के समान निकाचित – निधत्ति कर्म भी नष्ट हो जाते है जिस प्रकार वज्रपात से पर्वत भी टकडे दकड़े हो जाता है।
निकाचित-निद्धत्ति कर्म :- जो कर्म उदय, उपचार्षण, उत्कर्षण संक्रमण योग्य नहीं हो उसी कर्म को निकाचित कर्म कहते है । वह । स्थिति पूर्ण होने पर ही उदय में आकर फल देता है।
उपरोक्त प्रकार कर्म अकृत्रिम, कृत्रिम अथवा साक्षात भगवान के दर्शन से नष्ट हो जाता है तो सामान्य कर्म की बात क्या है। इसलिये भव्यजीव भक्तिपूर्वक भगवान के दर्शन - पूजा - अभिषेकादि करना चाहिये । यह कोई रुढी अथवा मिथ्यात्व नहीं है और पुण्य बंध का मात्र कारण नहीं है, परंतु साक्षात आत्म विशुद्धी एवं सम्यग्दर्शन प्राप्ति के लिये मी कारण है । जिन मंदिर, जिन प्रतिमा, जिनदर्शन, जिनपूजा प्रतिष्ठादि अर्वाचीन पद्धति नहीं है, अन्य परम्परा से आगत नहीं है ।। जिन चैत्य -- चैत्यालय का स्वरूप:___जैनियों के परमपूज्य परमोत्कृष्ट प्रातः स्मरणीय नव देवता है । । यथा-१) अरहंत २) सिद्ध ३) आचार्य ४) उपास्याय ५) सर्व साधु । ६) जिन चैत्य ७) जिन चैत्यालय ८) जिनधर्म ९) जिनागम ।
जिन चैत्य एवं जिन चैत्यालय कृत्रिम एवं अकृत्रिम दोनों प्रकार के होते है। जिन चैत्य अर्थात जिनबिंध पंच परमेष्ठियों का भी होता
अकृत्रिम चैत्यः
चमर करणाग जक्संग बत्तीसं मिहुण गेहि पुह जुत्ता । सरिसोए पतीए गठमगिहे सुटु सोहंति || ९८७ ।। त्रिलोकसार सिरिदेवो सुबवेवी सरवाह सणकुमार जक्खाणं । स्वाणि य जिनपासे मंगलम विहमयि होवि ।।९८८।।त्रिलोकसार भिगार कलस वप्पण बीय ण धय चामराव वत्तमहा । सुबठठ मंगलाणि य अहिय समाणि पसेयं ।।९८९, त्रिलोकसार