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संज्ञाओं रुपी ज्वर से पीडित होकर और उसके सहन करने में असमर्थ होकर उस आहार, भय, मथुन, परिग्रह, संज्ञा रूप दाह को शांत करने के लिये विषय समुद्र में स्नान करता है। उस समय में वह हिताहिम विवेक से शून्य होकर, निरस्त र आत्म जान से विपाल होकर विधषों को भोगता है । बाह्य जड वस्तुओं का संग्रह करता है । धन-सम्पत्ति आदि के क्षय से भयभीत होता है, शुष्टि पुष्टि कर इन्द्रियों को उत्तेजित कर आहारादि का भी सेवन करता है । अनादिकालीन अज्ञान के कारण परंपरा से आनेवाली परिग्रह संझा को त्याग करने में असमर्थ प्राय: विषय काम भोग में मूच्छित श्रावक होते है । इसी प्रकार भव्य मम्यरदृष्टी जीवों की दीन अवस्था को देखकर स्वपर उपकारी मोक्ष मार्ग के पथिक यथाशक्ति उसका आत्मउद्धार के लिये उपवेश देते है .
विषयविषप्राशनोस्थित मोहज्वरजनित तीव्रतष्णस्य | निःशक्तिकस्य भवतः प्राय: पेयाधुपक्रमः श्रेयान् ॥ १७ ।।
( आत्मानुशासन ) विषय रुपी विषय अपथ्य भोजन से उत्पन्न हुआ माह रुप उबर के निमित्त से जो तीन स्त्री संभोगरूप तृष्णा घन सापत्ति उपार्जन सरक्षणादि लालसा, विलासतादि तीय तृष्णा से सहित होने के कारण जिसकी शक्ती उत्तरोत्तर क्षीण हो रही है ऐमे तेरे लिये प्रायः मुपाच्य पेय के योग्य अणुव्रतादि सदृश पथ्य प्राथमिक अवस्था में चिकित्सा के लिय अधिक श्रेयस्कर होगी -
बहुशः समस्तविरति प्रदर्शिता यो न जानु ग्रहणाति । तस्वदेशथितिः कथनीयानेन बोजेन ।। १७ ।।
- बालयो - हिमाहिम परिभुषको पर बल्वे सया अणुरत्तो । पर वन्य मासे आऊलो जो सो हवई थालयो ।॥ १९ ॥
- फोड - जो सो विवेय सोलो अप्पावग्वे सपा अणुरत्तो । पर दच्य विमुत्त कुसलो जो सो हवई फोडों ।। २० ।।