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अनिवार्य है । तथा जीव दया, पंचपरमेष्ठी प्रतिभक्ति, देव-दर्शन, शास्त्र श्रवण, गुरु बंदना, आहार दान, देव पूजा, संयम, तप, अहिंसाणुव्रत. सत्यानव्रत, अचौर्यानुनत, ब्रह्मचर्यानुवत, परिग्रह परिमाणु अणुव्रत पालन करना अनिवार्य है तथा अन्याय, अत्याचार, शोषण, लोक विरुद्ध, समाज बिरुद्ध, पर निंदा, आत्म प्रशंसा, द्वेष मात्सर्य आदि पापात्मक अशुभ परिणामों को त्याग करके पुण्यात्मक शम परिणाम को धारण, पोषण स्वचन करना चाहिये ।
अष्टावनिष्ट दुस्तर दुरिता यतनान्यमूनि परिवज्ये । जिनधर्म देशनाया भवन्ति सत्राणि शुद्धधियः ॥ ७४ ।।
( पुरुषार्थ सिद्धि ) मद्य, मांस, मधु एवं पच उदुम्बर फल अत्यन्त अनिष्ट कर पाप वक, नरक निगोदियादि दुर्मति के बारण आत्मपतन के कारण मानसिक शारीरिक, वाचनिक आध्यात्मिक मलीनता के कारण होने से जो उनको यत्नदुर्बका त्याग करता है वही भव्य सम्यग्दृष्टी जीव शुद्ध मनोभाव याला होकर जिनधर्म सुनने के लिये, शास्त्र सुनने के लिये शास्त्र पढ़ने पढ़ाने, उपदेश करने का पात्र होता है अन्य नहीं हो सकता है। श्रावक के षट् आवश्यक :
येवपूजा गरुपारितः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गहस्थान षटकर्माणि दिने दिने ।। ६ ॥
( पद्मनंदि पंचविंशति ) १) देवपूजा २) गुरुसेवा ३) स्वाध्याय ( भाव द्रव्यरुप श्रुताग्यास ! ४) संयम (५ प्रकार प्राणी संयम, मन सयम, इन्द्रिय संयम)
- सोच - भाधि भोग पक्षात्थे जो पाठवि ममत्ति भावं सो सोच मुणे यच्च ण बहिरंग मातण ।। २१ ।। सव्व असुचि शोज लोह कमाय होदि णियमेण । यो गासेण पुणो अनुचि ऋक्ख ण हबदि ।। २२ ।।