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इस पंचम काल में सहनन अत्यन्त हीन है, काल अत्यन्त दुःषम है। मन अत्यन्त चंचल है, तथापि जो धीर बीर पुरुष महाव्रत रुपी महामार को धारण करने के लिये उत्साहित है वह महान प्रशंसनीय वंदनीय, पूज्यनीय है ॥ १३० ॥
चतुर्थ काल में जिस उत्तम संहनन युक्त शरीर माध्यम से तपउचरण द्वारा जो कर्म एक हजार वर्ष में नष्ट होता था, उतना ही कम वर्तमान दुःषम काल में हीन संहनन युक्त हीन शरीर से एक वर्ष की तपश्चरण द्वारा नष्ट होता है । इसमे सिद्ध होता है, चतुर्थकाल अपेक्षा पत्रमाल में तर, मतपश्चरणादि १००० गुणा दुष्कर है। निग्नंथ रूप की दुधरता के लिये भगवान जिनसेन स्वामो आदि सुराण में बताये है :
अशक्य धारणं चेदं जन्तूनां कातरात्मनाम् । जनं निस्संगला मुख्य रुप धोर: निषेव्यते ।।
जिसमे यथाजात रुष अन्तरंग-बहिरंग संग रहितता मुख्य है एसा निग्रंथ लिंग उसी प्रकार दुर्घर, दुरासाध्य अत्यन्त कठीण रुप को कातर कायर, मन एवं इन्द्रियों के दास, भोगों के कीड़ों के द्वारा धारण करना अत्यन्त अशक्य है । जो धीर, वीर, गंभीर, दमी, यमी होते है उनके द्वारा ही निग्रंथ लिंग धारण किया जा सकता है। जैसे-चक्रवर्ती के चक्र को कायर पुरुष प्रयोग नहीं कर सकता है, केवल बीर पुरुष, पुण्यात्मा पुरुष धारण कर सकता है । उसी प्रकार इस निग्रंथ रुप को बीर, बीर एवं पुण्यात्मा पुरुष धारण कर सकते है।
अन्तर विषय वासना वरतें बाहर लोक लाज भय भारी । यातें परम दिगम्बर मुद्राधर नहीं सके दोन संसारी ॥ ऐसी दुर्धर नगन परिषह जीतें साधु शोल व्रतधारी । निधिकार बालकवत् निर्भय तिनके चरणों घोक हमारी ॥७॥
(२२ परिषद) पचमकाल के अंतिम समय तक भाव लिंगी मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका रहेंगे, यह त्रिलोकसार में सिद्धांत चक्रवर्ती नेमीचंद आचार्य कहते है :