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शुद्धबुद्धक स्वरुपोऽपि व्यवहारेण गृहस्थापेक्षया यथासम्भवं सराग सम्यक्त्व पूर्वक दान-पूजादि शुभानुष्ठानेन तपोधनापेक्षया तु मूलोतर गुणादि शुभानुष्ठानेन परिणतः शुभो ज्ञातव्य इति । मिथ्यात्वविरति - प्रमाद कवाय योग पञ्च प्रत्ययरुपाशुभोपयोग नाशुभो विज्ञेयः । निश्चय रत्नत्रयात्मक शुद्धोपयोगेन परिणतः शुद्धो ज्ञातव्य इति । किं च जीवस्या संख्येयलोक मात्र परिणामाः सिद्धान्ते मध्यम प्रतिपत्या मिध्यादृष्ट्यादि चतुर्दश गुणस्थान रूपेण कथितः । अथ प्राभृत शास्त्रे तान्येव गुणस्थानानि संक्षपेण शुभाशुभ शुत्रोपयोग रूपेण कथितानि । कथमिति चेत - मिथ्यात्व - सासादन - मिश्र गुणस्थान त्रये तारतम्येनाशुभोपयोगः तदनन्तरमसंयत सम्यग्दृष्टि-देश वरत- प्रमत्तसंयत गुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोगः, तदनन्तरमप्रमत्तादि क्षीणकवायान्त गुणस्थान षट्के तारतम्येन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरं सवोग्य योगीजन गुणस्थानद्वये शुद्धोपयोग फलमिति भावार्थ: ।।
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गाथार्थ :- जब उपयोगात्मक जोन शुभ भाव से परिणमन करता है तब वह स्वयं ही शुभ होता है। जब अशुभ से परिणमन करता है, तब वह स्वयं ही अशुभ होता है, और जब शुद्ध भाव से परिणमन करता है तब वह स्वयं शुद्ध होता है क्योंकि जोब परिणमन शोल एक चैतन्य द्रव्य है ।
टीकार्य :- जैसे स्फटिकर्माण निर्मल होने पर भी जया पुष्पादि लाल काला श्वेत उपाधि के वंश से लाल काला स्वेतरंग रूप परिणत करता है वैसे ही यह जीव स्वभाव से शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव होने पर भी व्यवहार से गृहस्थापेक्षा यथासंभव सराग सम्यक्त्व पूर्वक दानपूजादि शुभानुष्ठान को करने से तथा मुनि की अपेक्षा मूल एवं उत्तर गुणादि शुभानुरुप परिणित होने से शुभोपयोग वाला जानना चाहिय (मध्यादर्शन, अविरति प्रमाद कराय, योग एसे पांच कारण रूप अशुभ योग में सहित होता हुआ अशुभोपयोग जानना चाहिये निश्चय रत्नत्रयात्मक शुद्धोपयोग में परिणित करता हुआ शुद्ध जानना चाहिये ! सिद्धांत में विस्तार प्रतिपत्ति अपेक्षा असंख्यात लोक मात्र परिणाम है । मध्यम प्रतिपत्ति अपेक्षा मिथ्यादृष्टी आदि चतुर्दश गुणस्थान अपेक्षा