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विरचित व्योम पंडित को प्रतिबोध करने वाले श्रुतभवन दीपक नय चक्र में निश्चय व्यवहार का अबिनाभाव का कथन करनेवाला तृतीय अध्याय पूर्ण हुआ ।
" निश्चयव्यबहारयों बिना गावित्व " यह वाक्यांश अत्यन्त महत्त्व पुर्ण है। समस्त आगम और आध्यात्मिक रहस्य को उद्घाटित करने वाली एक गुरु चाबी है अर्थात् निम्न्य व्यवहार "रसार विरोधी नहीं है दोनो परस्पर सापेक्ष, उपकारक, सहायक है। दोनों सापेक्ष होने पर ही सम्यक है और निरपेक्ष होने पर दोनों मिथ्या हो जाते है।
५) तत्त्वसार:
आचार्य प्रवर की अन्य एक ध्यान प्रधान कृति तत्वसार है इस शास्त्र में गाथाएं प्राकृत में है। इसमें ७४ गाथाएँ है । इसमें स्वतन्त्र, परतत्त्व, सविकल्प तत्त्व, अविकल्प तत्त्व, अपरमतत्त्व परमतत्त्वों का
आध्यात्मिक भाषा में वर्णन है । आचार्य श्री ने हण्डावसपिणी पंचमकालस्थ में वक्र जड़ स्वभावी भ्रष्ट मिथ्यादृष्टियों का जो एक ध्यान संबंधी शका है उसका स्पष्टीकरण किये है यथा:--
पंचम काल में भाव लिंगी मुनियों का सदभाव :-- संकाकरवा गहिया विसय वसत्या सुमग्गयभठ्ठा । एवं भणंति केई पाहु कालो होइ झाणस्स ।। १४ ॥ तत्वसार
सदेह शील विषय सुख के प्रेमी भोगों में आसक्त एवं विषय भोगों म अपना हित मानने वाले जिनेन्द्र प्रणीत रत्नत्रय रुपी सुमार्ग से भ्रष्ट कितने ही इस प्रकार कहते है कि वर्तमान पचम काल ध्यान योग्य काल नहीं है. इस काल में मोक्ष नहीं है. स्यान भी नहीं होता है, यदि मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है तो मुनि होकर क्या करना है। पूर्वोक्त समस्त प्रश्नों का समाधान करते हुए आचार्य कहते है :
अज्जवि तिरचणवंता अप्पा झाऊन अंति सुरलोच। तत्थ चुया मण्यत्ते उपज्जिय लहहि णिवाणं ॥१५॥ (तत्वसार)
__थान भी इस पंचम काल में रत्नत्रयधारी मुनि आत्मा का ध्यान कर स्वर्ग लोक को जा सकते है वहाँ से च्युत होकर उत्तम मानव कुल में जन्म लेकर मुनि होकर निर्वाण की प्राप्ति कर सकते है :