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तहाँव वावपि सामान्येन पूज्यतां गतौ न । झवं व्यवहार पूज्यतरत्वानिश्चयस्य तु पूज्यतमत्वात् ।
( श्रुतभवनदीपक नयचक्र ) शंका:- यदि ऐसा है तो दोनों ही नय सामान्यरूप से ही पूज्यत्व - को प्राप्त होंगे।
समाधान:- नही, व्यवहार नम तो पूज्यतर है, लेकिन निश्चय नय पूज्यतम है 1 नयपक्षातीत:
यथा सम्यग्ध्यवहारेण मिथ्या व्यवहारो निवर्तते तथा निश्चयम व्यवहार विकल्पोति निवर्तते । यथा निश्चयनयेन व्यवहारा विकल्पोपि निवर्तते तथा म्बपर्यवसित भावेनेकत्व विकल्पोंपि निवर्तते । एवं हि जीवस्य बो सौ स्वपर्यवसित स्वभाव स एव नय पक्षातीतः ।
( श्रु. में, दी. नय, ) जिस प्रकार सम्यक् व्यवहार से मिथ्या व्यवहार का निराकरण होता है, उसी प्रकार निश्चय के द्वारा व्यवहार का विकल्प भी निवृत्त होता है तथा जिस प्रकार निश्चय नय द्वारा व्यवहार का विकल्प निवृत्त होता है उसी प्रकार स्वयंवसित स्वभाव ( परम निरपेक्ष स्वाश्रित स्वभाव ! के अवलम्बन से एकत्व का विकल्प भी छूट जाता है। इस प्रकार जीव का जो स्वपर्यवसित स्वभाव है वह नय पक्षातीत है ।
शुभाशुभ मंचर हेतु क्रममाह :जह व णिरुद्धं असुहं सूहेण सुहमवि तहेव सुद्धेण । सम्हा एण कमेण य जोई झाएउ णियआदं ।। ३४७ ।।
द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र |
जैसे शुभ के द्वारा अशुभ का विरोध होता है शुद्धोपयोग के द्वारा शुभ कर्मों का भी विरोध होता है । इसलिय योगी को पहले अशुभ का त्याग कर शुभोपयोगी होना चाहिये शुभोपयोग बढते बढ़ते आत्म विशुद्धि बढती है और शुद्धोपयोग मे स्थिर हो जाता है तब शुभ कर्मों का भी संवर हो जाता है।