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भगवती सूत्र श. १८ उ. १ चरम अचरम
"जो जं पाविहिर पुणो भावं सो तेण अचरिमो होइ । अच्चतविओगो जस्स जेण भावेण सो चरिमो ॥" * सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरड
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|| अठारसमे स पढमो उद्देसो समत्तो ॥
कठिन शब्दार्थ - पाविहिइ प्राप्त करेगा ।
भावार्थ - २८ - संयत जीव और मनुष्य, आहारक के समान है । असंयत और संयतासंयत भी इसी प्रकार है। जिसके जो भाव हो, वह जानना चाहिये । नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत, नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक की तरह है । २९-सकषायी यावत् लोभकषायी, इन सभी स्थानों में आहारक के समान है । अकषायी जीव और सिद्ध चरम नहीं, अचरम हैं। मनुष्य पद में कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम कहना चाहिये ।
३० - ज्ञानी सर्वत्र सम्यग्दृष्टि के समान है । आभिनिबोधिक ज्ञानी याक्त मन:पर्ययज्ञानी, आहारक के समान है। जिसके जो ज्ञान हो, वह कहना चाहिये । केवलज्ञानी का कथन नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जैसा है । अज्ञानी यावत् विभंगज्ञानी, आहारक के समान है ।
३१ - सयोगी यावत् काययोगी, आहारक के समान हैं। जिसके जो योग हो, वही लेना चाहिये । अयोगी, नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के समान हैं ।
३२ - साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी जीव, अनाहारक जैसे हैं । ३३- सवेदी यावत् नपुंसकवेदी, आहारकवत् है और अवेदक अकषायी के समान हैं ।
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३४ - सशरीरी यावत् कार्मणशरीरी का कथन आहारक का सा है । जिसके जो शरीर हो, वह कहना चाहिये । अशरीरी का कथन नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिक जैसा है ।
३५ - पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त और पांच अपर्याप्तियों से अपर्याप्त का
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