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जिन्होंने जैन सिद्धान्तों और जैन आचारोंको दूर-दूर तक विस्तारके साथ फैलानेका उद्योग किया है । और जहाँ कहीं वे गये उन्हें दूसरे सम्प्रदायोंकी ओरसे किसी भी विरोधका सामना नहीं करना पड़ा । " समन्तभद्र वाराणसी भी आये थे । काशी नरेशके समक्ष अपना परिचय देते हुए उन्होंने कहा था
प्रस्तावना
आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहम्, दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम् । राजन्नस्यां जलधिवलया मेखलायामिलायामाज्ञासिद्ध: किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम् ॥
हे राजन् ! मैं आचार्य हूँ, कवि हूँ, शास्त्राथियोंमें श्रेष्ठ हूँ, पण्डित हूँ, ज्योतिषी हूँ, वैद्य हूँ, मान्त्रिक हूँ, तान्त्रिक हूँ । अधिक क्या इस सम्पूर्ण पृथिवी में मैं आज्ञासिद्ध और सिद्धसारस्वत हूँ ।
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आचार्य समन्तभद्रके उक्त दश विशेषणोंमेंसे अन्तिम दो विशेषण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । आज्ञासिद्धका अर्थ है कि जो आज्ञा दें अर्थात् कहें वही सिद्ध हो जाय । सिद्धसारस्वतका अर्थ है कि उन्हें सरस्वती देवी सिद्ध थी । समन्तभद्रकी सर्वत्र सफलता अथवा विजयका रहस्य भी इसी में छिपा हुआ है । उनके वचन स्याद्वादकी तुलामें तुले हुए होते थे। दूसरोंको कुमार्ग पर चलते हुए देखकर उन्हें बड़ा ही कष्ट होता था । अतः स्वात्महित साधन करनेके बाद दूसरोंका हित साधन करना ही उनका प्रधान कार्य था ।
विक्रमकी नवमी शताब्दीके आचार्य जिनसेनने हरिवंशपुराण में समन्तभद्रके वचनोंको वीर भगवान्के वचनोंके समान प्रकाशमान बतलाया है'। अकलंकदेवने अष्टशतीके प्रारम्भमें यह स्पष्ट घोषित किया है कि समन्तभद्रके वचनोंसे उस स्याद्वादरूपी पुण्योदधि तीर्थका प्रभाव कलिकालमें भी भव्य जीवोंके आन्तरिक मलको दूर करने के लिए सर्वत्र व्याप्त हुआ है, और जो सर्व पदार्थों तथा
१. वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते । २. तीर्थं
सर्वपदार्थतत्त्वविषयस्याद्वादपुण्योदधेः, भव्यानामकलंकभावकृतये प्राभावि काले कलौ । येनाचार्य समन्तभद्रयतिना तस्मै नमः सन्ततम्, कृत्वा विव्रियतेस्तवो भगवतां देवागमस्तत्कृतिः
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